कुछ समय पहले किसी मित्र ने निम्नलिखित संदेश भेजा था-
जय श्री राम जी।आजकल कर्म कांड में बड़ी विकृति कर दी इन लोगो ने जैसे musical फेरे तथा कर्म के बीच में गाना बजाना इसके खंडन पर भी अपना एक लेख प्रेषित करे शास्त्रीय दृष्टि से।
एक दूसरे मित्र का संदेश आया था मेरे साथ वो इस प्रकार है-
आचार्य जी सादर प्रणाम/\। एक स्थान पर मैं विवाह निमंत्रण पर गया था जहाँ हिन्दी भाषा के पद्यों को सुरिले लय में गा गाकर विवाह कराए जा रहे थे, उनमें कहीं भी कोई मन्त्र पाठ नहीं था। ये कितना सही है?
आज ये मेरा लेख इन्हीं संदेशों के प्रत्युत्तर के रुप में लिखा जा रहा है। मित्रों आप सभी जानते हैं कि विवाह संस्कार की गिनती षोड़श-संस्कारों में होती है। साथ ही आप यह भी जानते हैं कि षोड़श संस्कारों के सम्पादन की अपनी विशिष्ट वैदिक व शास्त्रीय विधि उपलब्ध है। आइए अब निम्नलिखित प्रमाणों पर विचार करते हैं-
1. विधिहीनस्य यज्ञस्य सद्यः कर्ता विनश्यति।
रा.बाल.12.18
अर्थात्- विधिहीन यज्ञ को करने वाला कर्ता(यजमान) शीघ्र नष्ट हो जाता है।
2. यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।
गीताअ.16श्लो.23
अर्थात्- जो मनुष्य शास्त्रविधिको छोड़कर अपनी इच्छासे मनमाना आचरण करता है? वह न सिद्धि को? न सुखको और न परमगति को ही प्राप्त होता है।
इन प्रमाणों से यह तो सुस्पष्ट है कि जो शास्त्रीय अनुष्ठान शास्त्रविधि से करने चाहिए, उसके लिए मनमानी विधि अपनाने से अनुष्ठानकर्ता की हानि ही होती है।
जो लोग मनमाने तरीके से शास्त्रीय अनुष्ठान सम्पन्न करते या कराते हैं, वे शास्त्र की मर्यादा का अनुपालन नहीं करते और इन अनुष्ठानों को भी वे अपने भोग और आनन्द की प्रक्रिया मानते हैं। यह भोग की नहीं साधना की प्रक्रिया है। क्योंकि यह आधुनिक संगीतमय अनुष्ठान ऊपर से देखने में तो मनोरम दिखाई पड़ता लेकिन शास्त्र की अवहेलना होने से इसके दूरगामी दुष्परिणाम होते हैं। कीरातार्जुनीयम में कहा भी गया है-
आपातरम्या विषयाः पर्यन्त परितापिनः ।
अर्थात्- सांसारिक भोग ऊपर से रमणीय लेकिन अन्त में दुःखदाई होते हैं।
साथ ही शास्त्र भ्रष्ट हो चुके लोगों के पतन की घोषणा भी करता है-
विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः ।
अर्थात्- जो लोग भ्रष्ट हो जाते हैं, उनका सैकड़ों प्रकार से पतन होता है।
पूजा-पाठ अनुष्ठान आदि में हरिकीर्तन, रात्रिजागरण आदि का विशेष महत्व बताया गया है। अतः कर्मकाण्ड़ की प्रक्रिया को विकृत किए बिना अलग से ही भजन, कीर्तन, नामसंकीर्तन,गायन आदि कार्य करने कराने चाहिए। इनको परस्पर मिलाना और शास्त्रीय अनुष्ठान के रुप को विकृत करना बहुत बड़ा दोष है। सज्जनों और धर्मसेनानियों को शास्त्रविधियो की अभिरक्षा करनी चाहिए।
पुनः किरातार्जुनीयम् में-
व्रतारिभरक्षा हि सतामलंक्रिया ।
किरात.-14.14
अर्थात्- व्रत की रक्षा करना सज्जनों का भूषण है।
जो अनुष्ठान हम करते हैं, उनमें शास्त्राचार और लोकाचार दोनों ही होते हैं और दोनों का ही अपना विशेष महत्व है। शास्त्राचार शास्त्र विधि के अनुसार ही सम्पादित करने चाहिए, और लोकाचार लोक प्रक्रिया के अनुसार। इनकी व्यवस्था भिन्न-भिन्न(सेपेरेट) रहनी चाहिए। इन्हें परस्पर मिलाना नहीं चाहिए ।
हम विवाहादि अनुष्ठानों में लोकाचार के अन्तर्गत अनेक प्रक्रियाएँ अपनाते ही हैं। अपनी लोग भाषा में गायन वादन नृत्य संगीत होता ही है,फिर पौरोहित्य विधियों में छेड़छाड़ की जरूरत क्यों है???
मुझे लगता है, यह दुर्गुण टी.वी. सिरियल्स और सिनेमा की वजह से समाज फैलता जा रहा है। हम आभासी दुनिया को इतना ज्यादा सत्य मानने लगते हैं कि हमे असली दुनिया में भी उसी तरह की व्यवस्था खोजने लगतें हैं। हम भूल जाते हैं कि असली दुनिया के नियम कानून वास्तविक धरातल पर बनाए जाते हैं। हम ये भूल जाते हैं कि उस आभासी दुनिया को बनाने वाले वास्तविक दुनिया के ही लोग हैं। हम यें भूल जाते हैं कि आभासी दुनिया का वास्तविक दुनिया से कुछ खास लेना देना नहीं होता है।
मुझे उम्मीद है आप वास्तविक दुनिया में विश्वास करने वाले लोग हैं, आप आभासी दुनिया की चकाचौंध में अपने शास्त्रीय मर्यादा उल्लंघन तथा सनातनी व्यवस्था का अवमूल्यन नहीं करेंगे।
कर्मकाण्ड़ का ये विकृतरूप आधुनिक संगीतमय कर्मकाण्ड़ अशास्त्रिय है और हमारी परम्पराओं को विकृत करने वाला है। यह हमारे मूल उद्देश्य से ही हमें भटका रहा है। जिसके कारण हम श्रुतिस्मृतिपुराणोक्तफल प्राप्त करने में असमर्थ हो रहे हैं।
© पं. ब्रजेश पाठक "ज्यौतिषाचार्य"
B.H.U., वाराणसी।
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