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Wednesday 3 April 2019

प्रचलित संगीतमय कर्मकाण्ड़ पर विशद विवेचन....


संसार की उत्पत्ति नाद से मानी गयी है। प्रणव ही बीज है तथा प्रणव ही निःशेष है। ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म... ॐकार का नाद ही ब्रह्म का नाद है। यह नाद ही कालांतर में संगीत का आधार बना। स्वयं भगवान ब्रह्मदेव, नटराज एवं देवर्षि नारद आदि ने इसका प्रसारण किया। प्रजापति ब्रह्मा ने छंदों की रचना करके संगीत को मर्यादित एवं फलदायी बनाया। अनेक वैदिक तथा लौकिक छंद अपने अपने स्वरूप से शास्त्रविवेचन प्रस्तुत करते हैं।

वेद की ऋचाओं के द्वारा प्रयुक्त होने वाले कर्मकाण्ड में भी गायत्री, त्रिष्टुप्, बृहती, पंक्ति, जगती, अतिजगती, अनुष्टुप्छन्द आदि का बाहुल्य है। यह सभी सङ्गीत के ही आध्यत्मिक अवयव हैं। लौकिक संस्कृत साहित्य से युक्त इतिहासपुराणादि में भी आर्या, उपजाति, वसन्ततिलका, स्रग्धरा, भुजंगप्रयात प्रभृति अनेकानेक छंद विभिन्न रागानुसार शोभित हैं।

आधुनिक युग में यहाँ कर्मकाण्ड की परम्परा लुप्तप्राय हो चली है, वहीं इसके यथाशेष प्रारूप के अंदर भी विक्षेप का बाहुल्य हो गया है। प्रायः जीवित्पुत्रिका, हरितालिका, सत्यनारायण प्रभृति अल्पपरिश्रमसाध्य सर्वसुगम शास्त्रोक्त व्रतादि में अनुष्ठानात्मक अंश में भक्तिपरक गीतनृत्यादि का आदेश समुल्लिखित मिलता है, तो सत्यभामा प्रवर्तित एवं नारद सम्पोषित गानयोग का माहात्म्य श्रीमद्भागवत प्रभृति बृहद्यज्ञादि के अंतर्गत दृष्टिगम्य है। यथा ... प्रह्लादस्तालधारी तरलगतितया चोद्धवः कांस्यधारी...

परन्तु उपर्युक्त विधानों में सर्वत्र ही गानयोग का प्रारूप कर्मकाण्ड सम्मत ही रहा है। अधुना यह विलक्षणता लोपित हो चली है। यज्ञादि में सङ्गीत एक मनोरंजन का माध्यम हो गया है तथा उसका स्तर भी अत्यंत ही निकृष्ट हो गया है। रात्रि जागरण के नाम पर अश्लीलता से पूर्ण आयोजन किये जाते हैं तथा धर्म का स्वरूप कलंकित करके स्वयं को कृतकृत्य समझा जा रहा है।

भ्रष्ट आचार विचार व्यवहार वाले गायक तथा नाटकीय व्यक्तियों से गानयोग की परम्परा दूषित हो रही है। छंदशास्त्र की गरिमा और मर्यादा का रक्षण करके सात्विक रीति से वैदिक संगीत से सामगान एवं शेष ऋचा पाठ के साथ साथ लौकिक सङ्गीत से पुराण पारायण तथा देशज सङ्गीत से लोकभाषा में भक्तिगीतों का गान भारत के अनुष्ठान व्रतादि की विशेषता रही है।

परन्तु आजकल आयोजकों के लिए कर्मकाण्ड कराने वाले पुरोहितों का महत्व गिरता जा रहा है। वे कर्मकांडीय विद्वानों की सेवा दक्षिणादि में कृपणता करते हैं तथा रात्रि जागरण एवं संगीतमय प्रवचन के नाम पर अनर्गल प्रलाप करने वाले अभिनयपरक तत्वज्ञानविहीन वाक्पटु दलों के ऊपर अत्यधिक व्यय करने में अग्रसर हो जाते हैं।

कई बार ऐसा भी देखा गया है कि स्वयं कतिपय धनलोलुप विप्रजन भी ऐसे संगीत दलों से परिचय साधकर अपने अनुष्ठानों में आमंत्रित करते हैं तथा कमीशन के नाम पर आयोजकों से धन लेते हैं। इन सभी कृत्यों से धार्मिक अनुष्ठानों की तेजस्विता नष्ट होती है तथा परिणामस्वरूप फलहानि भोगना पड़ता है।

यज्ञों में समस्त विभागों का काल, उद्देश्य तथा विधि का नियमितीकरण करके मर्यादित किया गया है। किस छंद में कौन सा वेद किस विधान के अंतर्गत पढ़ा जाय, उस समय यज्ञमण्डप के बाहर स्थित शूद्रवर्ण के सात्विक आचार विचार वाले वादक किस ताल तथा स्वर में मृदङ्ग तथा पणव आदि का वादन करें, यह सब निश्चित किया जाता है। परन्तु आजकल यह सब परम्परा स्वयं सनातन समाज के पुराधाओं द्वारा ही नष्ट की जा रही है। अतएव स्वकल्याण तथा समाजोत्थान हेतु यह आवश्यक है कि शास्त्रोक्त विधि और निर्देश के अनुसार ही कर्मकाण्डपरक अनुष्ठानों में सङ्गीत जागरण आदि का नियोजन हो।

(चित्र में लाल परिधान में हमारे मीडिया प्रभारी एवं इस फेसबुक खाता के शाश्वत सञ्चालक श्री ब्रजेश पांडेय जी, उनके बगल में पीले परिधान में हमारे निजी सचिव अभिजीत दुबे जी, फिर मैं, और सबसे किनारे हमारे मौसेरे अग्रज एवं मार्गदर्शक ज्यौतिषाचार्य ब्रजेश पाठक जी हैं)
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©श्रीभागवतानंद गुरु
Shri Bhagavatananda Guru

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