साधना में सिद्धि

मेरे गुरुजी ने एक बार मेरे एक प्रश्न के उत्तर में कहा कि साधना तो तुम कर लोगे योग्य भी हो सिद्धि भी मिल जाएगी लेकिन उसे कब धारण रख सकोगे?????
ये बहुत बड़ी बात और साधना सिद्धि का अनमोल सूत्र गुरुजी ने प्रदान कर दिया था।
मेरे पास अक्सर लोग ये सवाल लेकर आते हैं कि साधना कई बार प्रयास करने पर भी सिद्ध क्यों नहीं हो रही है? जबकि कुछ अन्य लोग इसे सिद्ध कर चुके हैं।
यहाँ यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि हम कोई भी साधना करें उससे पहले हमें स्वयं को उस साधना से प्राप्त होने वाली सिद्धि की धारण क्षमता से युक्त करना होगा।
ऐसा करने पर ही आपको साधना में सिद्धि मिल सकती है। सिद्धि मिलने के बाद भी धारणा शक्ति को बरकरार रखना जरूरी है। सिद्धि कोई मूल्य देकर खरीदी गई वस्तु नहीं है कि आपने उसकी कीमत चुकाई और वो आपकी गुलाम हो गई। सिद्धि को पूरे मनोयोग से तन्मयता से सावधानी से take care के साथ धारण किए रहना होता है। अन्यथा जिस क्षण आप पतित होते हैं तत्क्षण सिद्धि आपका परित्याग कर देती है। एक बात और समझें एक बार किसी सिद्धि ने आपका परित्याग कर दिया तो पुनः उसे सिद्धि करना लगभग नामुमकिन सा हो जाता है।
इन्हीं सब बातों के लिए सुयोग्य गुरु की आवश्यकता होती है। सद्गुरु हमें सिद्धि धारण के योग्य बनाते हैं, मन्त्र शक्ति का एहसास कराते हैं। अनुशासन रुपी चाबुक से हमारे मन की उच्छृंखलता को नियन्त्रित रखते हैं, अपने तपोबल से साधना के दौरान आने वाले विघ्नों को दूर करते हैं।
आपने भी अपने आस पास के लोगों से सुना होगा फलाँ बाबा बहुत सिद्ध थे लेकिन अब उनका सिद्धि काम नहीं करता....फलाँ बाबा का झाड़ा अब असर नहीं करता आदि आदि।
धारण क्षमता का कितना महत्व है उसे समझने के लिए ये दृष्टांत पढ़ें-
पांडवों और कौरवों के बीच भगवान श्रीकृष्ण के सुलह कराने का प्रयास विफल हो चुका था । दुर्योधन पांडवों को मात्र पॉच गाँव भी देने को तैयार न हुआ था। अब युद्ध अवश्यम्भावी हो चुका था । दोनों पक्ष अपनी अपनी शक्तियों को बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील थे । नकुल और सहदेव के अपने मामा शल्य अपनी सेना के साथ पांडवों की सहायता के लिए आ रहे थे । उनसेे छल करके दुर्योधन ने वचन प्राप्त कर लिया और विवश हो शल्य को दुर्योधन की तरफ से युद्ध करना पड़ा था । दुर्योधन ने भगवान श्रीकृष्ण की नारायणी सेना प्राप्त कर ली थी और पांडवों को निहत्थे कृष्ण मिले थे ।
एक दिन नदी में स्नान करते समय द्रोणपुत्र अश्वथामा को विचार आया कि श्रीकृष्ण ने तो युद्ध में शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा कर ली है तो उनके आयुधो का क्या होगा । वे तो बेकार ही पड़े रहेगे । क्यों न श्रीकृण से उनका कोई आयुध मॉग लिया जाए । उनके पास जो सुदर्शन नाम का चक्र है वह बड़ा ही चमत्कारी चक्र है । सुना है, उसका वार कभी खाली नहीं जाता है । शत्रु का सिर काट कर वह पुनः तर्जनी पर स्थापित हो जाता है । अगर वह चक्र मुझे मिल जाए तो युद्ध में मेरा सामना करने वाला कोई नहीं रह जाएगा और मैं एक ही दिन में इस युद्ध को जीत लूँगा । वैसे भी मैं तो एक ब्राह्मण हूँ, मुझे तो मॉगने का अधिकार है ही । श्रीकृष्ण भी इन्कार नहीं कर सकते हैं । अपने विचारों पर अश्वथामा बहुत ही खुश हुआ और दूसरे दिन ही द्वारका के लिये प्रस्थान कर गया ।
अरूणोदय हो चुका था । भगवान श्रीकृष्ण स्नान करके पूजा से निवृत्त हो चुके थे । अब वे उपस्थित याचकों को दान दे रहे थे । प्रतिहारी एक एक करके याचकोे को उपस्थित करा रहा था । श्रीकृष्ण उनसे उनकी वांछा पूछ रहे थे और पूरा कर रहे थे । तभी एक तरूण ब्राह्मण कुमार उनके समक्ष उपस्थित किया गया । श्रीकृष्ण ने उसे पहचान लिया और हँस पड़े । फिर बोले -
‘‘अहो ! दुर्योधन के परम मि़त्र, अश्वस्थामा को भी मुझसे याचना करने की अवश्यकता आन पड़ी ! कहिये ब्राह्मण कुमार आपको क्या चाहिये ? मैं आपका क्या प्रिय करुँ ? मेरे लिये ऐसा कुछ भी अदेय नहीं है, जिसे आप प्राप्त करने की योग्यता और शक्ति रखते हों ।‘‘
भगवान श्रीकृष्ण की बात सुन कर अश्वथामा ने मन ही मन सोचा कि जब तक इस संसार में तुम्हारे जैसे धर्मभिरू दाता रहेगें तब तक मुझ जैसे चतुर व्यक्ति को अपना स्वार्थ सिद्ध करने में क्या कठिनाई हो सकती है । ऐसा सोच कर वह निर्लज्जतापूर्वक हँस पड़ा और बोला -
‘‘अच्छी तरह सोच लीजिए माधव ! कहीं वचन दे कर आप वांछित वस्तु नहीं दे सके तो आपको लज्जित होना पड़ेगा । मेरा उद्देश्य आपको लज्जित करना कदापि नहीं है ।‘‘
श्रीकृष्ण के लिये कुछ भी अदेय नहीं है ब्राह्मण कुमार । आप निःसंकोच याचना कीजिए ।‘‘
‘‘यदि ऐसी बात है तो हे माधव ! मुझे आपका सुदर्शन चक्र चाहिए । आप मुझे वही दे कर कृतार्थ करें ।‘‘
अन्तर्यामी हँस पड़े और बोले -
‘‘इतनी छोटी से वस्तु की याचना के लिये ब्राह्मण कुमार इतना संकोच कर रहे थे । आप मेरा सुदर्शन चक्र ले जा सकते है ।"
गोविन्द ने पास खड़े एक सैनिक से कहा -
‘‘सैनिक ! ब्राह्मण कुमार को आयुधागार में सुदर्शन चक्र के समीप पहुचा दो । ‘‘
अश्वस्थामा की तो बॉछे खिल उठी । वह खुशी से पागल हो रहा था । अब उसके समान योद्धा इस संसार में कोई नहीं होगा । सुदर्शन चक्र की सहायता से हृषीकेश को भी हराने का स्वप्न देखता हुआ वह सैनिक के साथ आयुधागार में उस स्थान पर आ गया, जहॉ सुदर्शन रखा हुआ था । सुदर्शन की ओर इंगित कर सैनिक चुपचाप पीछे खड़ा हो गया ।
अश्वस्थामा सुदर्शन के समीप आया । उसे हसरत भरी नजरों से देखा । आगे बढ़ कर उसे स्पर्श किया । और फिर उठा लेना चाहा । लेकिन यह क्या ? यह सुदर्शन चक्र तो बड़ा भारी है । उठता ही नहीं । उसने उसे दोनों हाथो से उठाना चाहा । लेकिन फिर भी वह चक्र टस से मस न हुआ । घुटने के सहारे बैठ कर दोनों हाथों से जोर लगा कर, चक्र को सर पर उठा कर ले जाने का भी प्रयास किया । लेकिन सारे प्रयास व्यर्थ रहे ।
लज्जा से सिर झुकाए हुए सैनिक से साथ अश्वस्थामा आयुधागार से लौट आया । उसे खाली हाथ आया देख श्रीकृष्ण हँस पड़े और बड़ा ही सारगर्भित बात कही -
‘‘मुझे दुःख है अश्वथामा कि तुम सुदर्शन चक्र को नहीं उठा सके । लेकिन मुझसे कोई वस्तु मांगने के पहले तुम्हें यह तो सोच लेना चाहिए था कि उस वस्तु को धारण करने की शक्ति और क्षमता तुममें है भी या नहीं । मेरी सारी विभूतियाँ तुम लोगों के लिए ही है । लेकिन उसे पाने के लिये, उसे धारण करने के योग्य तो तुम्हें खुद ही बनना होगा । जो जितना धारण कर सकता है उसे उतनी विभूति तो मिलती ही है । अब तुम जाओ ! पहले अपनी ज्ञानशक्ति, इच्छाशक्ति और क्रियाशक्ति को और अधिक संवृद्धि कराे, उत्तरोत्तर संवृद्धि करो । फिर मेरी सारी विभूति मेरी सारी शक्ति हस्तगत करके मुझ जैसा ही बन जाओ ।


© पं. ब्रजेश पाठक ज्यौतिषाचार्य
B.H.U., वाराणसी।