ईश्वर साक्षात्कार के बाद मुक्ति कब ???
कुछ समय पहले मेरे एक मित्र ने मुझसे बहुत जबरदस्त प्रश्न पूछा था आज उसका सटीक शास्त्रीय उत्तर आप सबके साथ साझा कर रहा हूँ।
#प्रश्न- ईश्वर(परमब्रह्म) सच्चिदानन्द(त्रिकालाबाधित), अखण्ड(सजातीय-विजातीय-स्वगतभेदशून्य), सर्वदा विद्यमान, प्रकाशरुप, चैतन्यस्वरुप, आनन्दघन, सर्वशक्तिमान परमात्मा जो जीवों के लिए एकमात्र लक्ष्य हैं। जिनके दर्शन मात्र से सारा अज्ञान समाप्त हो जाता है, जिनके दर्शन के बाद कुछ भी देखना बाकी नहीं रह जाता।
शास्त्रों में भी कहा गया है-
#भिद्यते_हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते_सर्वसंशयाः।
#क्षीयन्ते_चास्य_कर्माणि_तस्मिन_दृष्टे_परावरे।।
अर्थात- उस कारण कार्यरुप ब्रह्म का साक्षात्कार होने पर साधक की हृदय-ग्रन्थि खुल जाती है, सम्पूर्ण सन्देह दूर हो जाते हैं और उसके सञ्चितादि कर्म नष्ट हो जाते हैं।
(मुण्डकोपनिषद् २/२/८)
यदि उपरोक्त सभी बातें सत्य हैं तो उन दिव्याऽतिदिव्य ईश्वर के दर्शन के बाद सद्य ही साधक मोक्ष क्यों नहीं प्राप्त कर लेता???
ऐसे कई उदाहरण हैं जहाँ मुमुक्षु (मोक्ष की इच्छा रखने वाला) को भी ईश्वर साक्षात्कार के बाद तुरंत ही मोक्ष प्राप्त नहीं हुआ जबकि उनकी तपश्चर्या का एकमात्र लक्ष्य मोक्ष ही था।
#उत्तर- उपरोक्त सभी बातें शत प्रतिशत सत्य हैं।
इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए हमें मोक्ष और कर्मभेदों की प्रवृत्ति को समझना होगा। मोक्ष का शाब्दिक अर्थ होता है मुक्त होना, छूटकारा पा लेना। यहाँ मोक्ष एक पारिभाषिक शब्द है -जिसका अर्थ है जीवनमुक्त हो जाना; शरीर छोड़ना जीवनमुक्ति(मोक्ष) का लक्षण नहीं है, जबकि सांसारिक मनुष्य इसे ही मोक्ष का लक्षण मानते हैं। #वेदान्तसार नामक ग्रंथ के ३९वीं कारिका के प्रथम परिच्छेद में जीवनमुक्त व्यक्ति का लक्षण बताते हुए आचार्य सदानन्द यति कहते हैं-
जीवनमुक्तोनाम स्वस्वरूपाखण्डब्रह्मज्ञानेन तद्ज्ञानबाधनद्वारा
स्वस्वरूपाखण्डब्रह्मणिसाक्षात्कृतेऽज्ञानतत्तत्कार्यसञ्चितकर्मसंशयविपर्ययादीनामपिबाधितत्वादखिलबाधरहितोब्रह्मनिष्ठः।
अर्थात- जब आत्मा और ब्रह्म की एकता का ज्ञान हो जाता है, तब उस ज्ञान से आत्मविषयक सम्पूर्ण अज्ञान नष्ट हो जाता है और अद्वितीय ब्रह्म का साक्षात्कार हो जाता है। इस दशा में मूल #अज्ञान और उसके #कार्यरुप स्थूल-सूक्ष्म दोनों प्रपञ्च #सञ्चित कर्म अर्थात ज्ञानोत्पत्ति के पूर्व अनारब्ध फलवाले कर्म, #संशय अर्थात देह से अतिरिक्त ब्रह्मस्वरूप आत्मा है या नहीं अथवा ब्रह्मात्मज्ञान से मोक्ष होगा या नहीं इस प्रकार की विचिकित्सा। #विपर्यय देहादिकों में आत्माभिमानरूप, आदि शब्द से बाह्य प्रपञ्च में सत्यत्व बुद्धि ये सब जिसके नष्ट हो जाते हैं उस ब्रह्मनिष्ठ को जीवनमुक्त कहते हैं।
अब यहाँ एक और प्रश्न #जीवनमुक्त_को_शरीरमुक्ति_कब_मिलती_है?
इसका जवाब मिल जाए तो उपर्युक्त प्रश्नसंबंधी सभी शंकाएँ निर्मूल हो जाएंगी।इसके लिए हमें कर्मभेद और उनकी प्रवृत्ति को समझना होगा। लेकिन उससे पहले हमें एक बात अच्छी तरह जानना और स्वीकार कर लेना चाहिए कि यह सम्पूर्ण जगत् ईश्वर के बनाए हुए नियमों पर चल रहा है और स्वयं ईश्वर भी इन नियमो को नहीं तोडते।
अब कर्मभेद और उनकी प्रवृत्ति को समझते हैं-
कर्म के तीन भेद हैं-
१)सञ्चित कर्म
२)क्रियमाण कर्म, और
३)प्रारब्ध कर्म
१)सञ्चित कर्म-सञ्चित कर्म वे हैं जिनका फल-भोग मिलना अभी प्रारम्भ नहीं हुआ है, आगे प्रारम्भ होने वाला है।
२)क्रियमाण कर्म- क्रियमाण कर्म वे हैं, जो वर्तमान में किए जा रहे हैं।
३)प्रारब्ध कर्म-प्रारब्ध कर्म वे हैं जिनका फल-भोग मिलना प्रारम्भ हो गया है।
ब्रह्मसाक्षात्कार या ब्रह्मज्ञान(अहं ब्रह्माऽस्मि कि अनुभूति) होने पर सञ्चित तथा क्रियमाण कर्म तो नष्ट हो जाते हैं परन्तु ईश्वर की बनायी व्यवस्था के अनुसार प्रारब्ध कर्मों को तो भोगना ही पड़ता है। कहा गया है #प्रारब्ध_कर्मणां_भोगादेव_क्षयः अर्थात प्रारब्ध कर्म भोगने से ही नष्ट होते हैं।
प्रारब्ध कर्म की समाप्ति होते ही शरीरमुक्ति भी उस ब्रह्मवेत्ता को प्राप्त हो जाती है।
© पं. ब्रजेश पाठक "ज्यौतिषाचार्य"
२२/०४/२०१७
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