ग्रहों में परस्पर बलवृद्धि
जिज्ञासु
के प्रश्न- जय
श्री राम ! कृपा करके कौन सा ग्रह किस ग्रह के साथ कैसा फल प्रदान करता है,तथा उसका फल कब विपरिणाम होता है ,यह भी बताएँ ।
मेरा उत्तर- यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि कई
बार इस विषय पर ज्योतिर्विद भी संशय में पद जाते हैं | फलादेश में कुशलता पाने के
लिए इनको जानना बहुत जरुरी है |
इस प्रश्न का बहुत ही सटीक उत्तर हमें
महानतम् ज्योतिर्विद् श्री वैद्यनाथ दीक्षित जी द्वारा रचित ग्रन्थ “जातक पारिजात”
में देखने को मिलता है-
अर्केण मन्दः, शनिना महिसुतः, कुजेन जीवो गुरुणा निशाकरः ।
सोमेन शुक्रोऽसुरमन्त्रिणा बुधो बुधेन
चन्द्रः खलु वर्द्धते सदा ॥
जा.पा.अ.2श्लो.61
अर्थात्- सूर्य के साथ शनि हो तो शनि
का बल बढ़ता है। शनि के साथ रहने पर मंगल का, मंगल
के साथ रहने पर गुरु का, गुरु के साथ रहने पर चन्द्रमा का, चंद्रमा के साथ रहने पर शुक्र का, शुक्र से बुध का व बुध से चन्द्रमा का बल बढ़ता
है।
“भावमञ्जरी” नामक अपने ग्रन्थ में ज्योतिर्विद्
मुकुन्द दैवज्ञ पर्वतीय जी ने भी “जातक पारिजात” के इस सूत्र का समर्थन किया है |
यमः पतङ्गेन यमेन भूजनिरार्य्योऽसृजा
वाक्पतिना हिमद्युतिः ।
कवि कलेशेन सितेन सोमजः सुधाकरः
सोमसुतेन वर्द्धते ।।
भावमञ्जरी, प्र.प्र.श्लो.12
अर्थात्- सूर्य के साथ रहने पर शनि का
बल बढ़ता है । इसी प्रकार शनि से मंगल का, मंगल
से गुरु का, गुरु से चन्द्रमा का, चन्द्रमा से शुक्र का, शुक्र से बुध का तथा बुध से चन्द्रमा का बल
बढ़ता है ।
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समीक्षा-
1. सूर्य-शनि का योग मन्दार्क योग के
नाम से प्रसिद्ध है । यह अशुभ योगों में परिगणित होता है।
2. शुभग्रहों के षष्ठ-सप्तम-अष्टम्
भावों में सहावस्थान से अधियोग बनते हैं।
3. गुरु चन्द्रमा से गजकेसरी योग बनता
है।
3. शनि-मंगल से द्वन्द्व योग बनता है, जो कष्टदायक ही बताया गया है।
4. मंगल गुरु का योगफल शास्त्रों में
अच्छा बताया गया है।
5. चन्द्र शुक्र का योगफल मिश्रित
बताया गया है।
6. बुध शुक्र के योग को लक्ष्मी योग
कहा जाता है ये योग बहुत शुभ है ।
7. चन्द्र बुध का योगफल बहुत शुभ बताया
।
निष्कर्ष-
1. यहाँ बताए गए ग्रह योग अच्छे नहीं
होते बल्कि इन ग्रहयोगों से उक्त ग्रह बलवान होते हैं, यही भाव है ।
2. बलवान होने के पश्चात वे पाराशरीय
नियमानुसार अपने शुभाशुभ भावजन्य या दशाजन्य फल जातक को प्रदान करते हैं ।
3. इस श्लोक के सन्दर्भ में सिर्फ
ग्रहयुति नहीं बल्कि ग्रहों के चतुर्विध संबंधों को ग्रहण करना चाहिए।
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प्रसंगानुसार कुछ अनमोल ध्यातव्य सूत्र-
1. सूर्य-बुध का योग बुधादित्य योग के
नाम से प्रसिद्ध है जो राजयोग की श्रेणी में गिना जाता है । क्योंकि बुध को अस्त
दोष सबसे कम लगता है ।
2. गुरु के साथ राहु-केतु का योग गुरु
चण्ड़ाल योग बनाता है, ये बहुत अशुभ योग है ।
3. मंगल के साथ राहु-केतु का योग
अंगारक योग कहा जाता है, ये बहुत अशुभ योग माना जाता है।
4. शनि के साथ चंद्र का योग विष योग
कहलाता है, ये भी बहुत अशुभ योग है ।
5. चन्द्र व सूर्य का योग दर्शयोग
कहलाता है, ये सबसे ज्यादा अशुभ है, पूरी कुंडली को निर्बल कर देता है।
6. दो या दो से अधिक पाप ग्रह जिस राशि
व भाव में हों उस अंग में रोग, घाव
या आपरेशन का योग बनाते हैं।
7. सूर्य के साथ चन्द्रमा, पाँचवें भाव में स्थित वृहस्पति, चतुर्थ में बुध, सप्तम में मार्गी शनि, षष्ठ
में शुक्र व द्वितीय भाव में मंगल ग्रह निष्फल होता है।
8. सप्तम में शुक्र, पंचम में अशुभ राशिस्थ गुरु व चतुर्थ में बुध
यदि अकेले हों तो अरिष्ट फल ही करते हैं।
9. नवम में सूर्य, चतुर्थ में हीनबली चन्द्रमा, जातक पंचम में गुरु, तृतीय में मंगल व सप्तम में शुक्र अकेले हों तो
दुःखप्रद ही होते हैं।
10. चर राशि से 11वें भाव में, स्थिर राशि से नवम भाव में और द्विस्वभाव राशि
से सप्तम भाव में स्थित ग्रह या भावेश अत्यंत कष्टकारक होते हैं।
11. बाइसवें द्रेष्काण का स्वामी परम
अनिष्टकारक होता है।
12. लाभ भाव में सभी ग्रह, षष्ठ भाव में सूर्य, चतुर्थ भाव में पक्षबली चन्द्रमा, त्रिकोण भावों में शुभ राशियों में स्थित गुरु, लग्न में शुक्र व तृतीय भाव में स्थित शनि व
उच्च राशि में स्थित ग्रह कुछ न कुछ शुभफल अवश्य करते हैं। यदि इनके साथ कोई शुभ
या कारक ग्रहयुति हो तो कहना ही क्या है !
13. 6.8.12 भावों में स्थित ग्रह या
राहु-केतु के साथ रहने वाले ग्रह या नीच व शत्रुराशि वाले ग्रह जो शुभफल देना हो
वो तो देते ही हैं परन्तु अपना अशुभ फल अवश्य ही देते हैं ।
14. ग्रह यदि लग्नकुंड़ली में
अच्छा(उच्च, स्वगृही आदि) हो परन्तु नवमांश कुंडली
में शुभराशि में न हो तो शुभफल नहीं कर पाता, अशुभ
जरूर कर देता है ।
15. कुंडली देखने से पहले लग्न, सूर्य व चन्द्रमा की ठीक से समीक्षा कर लेनी
चाहिए। इनके कमजोर रहने पर अच्छे से अच्छे राजयोग व महापुरुष योग भी अपना पूरा
प्रभाव नहीं दिखा पाते ।
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पं. ब्रजेश पाठक
"ज्यौतिषाचार्य"
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