मन की बात
बाधक ग्रह पर तथ्यों के अन्वेषण के दौरान मुझे सर्वार्थचिन्तामणि ग्रंथ अध्याय 18 श्लोक 2 मिला। इसके प्रथम पद 'क्रमाच्च रागद्विशरीरभाजाम्' का अर्थ लगाने के लिए मैं दो दिनों तक बहुत परेशान रहा, अनेक प्रयास किए। लेकिन बहुत प्रयास करने के बाद भी ये समझ नहीं आ रहा था कि 'रागद्विशरीरभाजाम्' का क्या अर्थ किया जाए? टीकाकारों ने इसका अर्थ चर, स्थिर, द्विस्वभाव किया था। लेकिन यह कैसे संभव होगा, इस बात को लेकर मेरा मन लगातार चिन्तन कर रहा था, क्योंकि प्रकरण के अनुसार तो यही अर्थ अपेक्षित था पर यह अर्थ 'रागद्विशरीरभाजाम्' से स्पष्ट नहीं हो रहा था। खेमराज से प्रकाशित हिन्दी टीका के महान टीकाकार ने तो न जाने क्या देखकर चर, स्थिर द्विस्वभाव भी लिखा और द्विशरीरभाजाम् को देखकर राहु-केतु भी लिखा। मतलब देखकर मन ने उनके लिए कहा- हैं तो महानै वाले। यहाँ कहीं से भी राहु-केतु न तो वर्णित है न वांछित है। पर कापी पेस्ट भी करना है और अपनी अकल भी लगानी है (जो कि है ही नहीं उनके पास) तो ऐसा ही अनर्थ होगा। इसके अलावा भी मैंने सर्वार्थचिन्तामणि की कई टीकाएँ देखीं, लेकिन संतुष्ट नहीं हुआ। फिर थक हार कर दूसरे दिन मैंने अपने परिचित् ज्योतिर्विद् मित्रों को यह श्लोक भेजा और निवेदन किया कि 'रागद्विशरीरभाजाम्' को स्पष्ट करें। कई लोगों ने तो प्रयास ही नहीं किया, कई लोगों ने कुछ बहाने बता कर मना कर दिया। एक प्रिय मित्रमणि ने कुछ प्रयास किया अर्थ लगाने का पर मैं संतुष्ट नहीं हुआ, फिर एक घंटे बाद उन्होंने ही अन्वेषण करके मुझे फोन किया और कहा यदि क्रमाच्च और रागद्विशरीरभाजाम् के बीच का स्पेस मिटा दिया जाए तो अर्थ लग जाएगा क्या??? मैंने तुरंत उनका स्पेस हटाया उनको मिलाया- 'क्रमाच्चरागद्विशरीरभाजाम्' और....... अरे... अर्थ लग गया एकदम तुरंत और सुस्पष्ट क्रमात् + चर + अग(स्थिर) + द्विशरीर (द्विस्वभाव) + भाजाम् (संज्ञकेषु) = क्रमाच्चरागद्विशरीरभाजाम्। ये क्या जादु था भई। मतलब 'मौज कर दी तन्ने बेटे मौज कर दी' वाली फिलिंग आने लगी। फिर मैंने सभी टिकाएँ चेक की लेकिन सभी टीकाकारों ने 'क्रमाच्च रागद्विशरीरभाजाम्' स्पेस के साथ ही लिखा था। मतलब सब के सब बस यहाँ से उठा के वहाँ छापने में लगे हैं किसी एक ने गलती कर दी तो किसी ने उसको सुधारना जरूरी नहीं समझा पिष्टपेषण करते रहे और अपने अपने नाम से टीकाएँ छपवाते रहे।
एक और अनुभव -
लगभग चार वर्ष पूर्व एक बार इस स्पेस ने मुझे और परेशान किया था। मुहूर्तचिन्तामणि की एक पंक्ति है कदास्त्रभे... मुझसे किसी ने पूछा इसका अर्थ बताइए। मैं लग गया अपने काम पर कदा + स्त्रभे लगाता रहा कोई अर्थ ही न लगे, परेशान हो गया क्या मामला है अर्थ क्यों नहीं लगता। संयोग से मैं वृंदावन में था गुरुजी के पास गया उनको दिखाया उन्होंने कुछ कहा नहीं 'गुरोस्तुमौनव्याख्यानम्' छट से पेन उठाया और 'क-दास्त्रभे' कर दिया। अरे वाह ये क्या हो गया, अब इसका अर्थ कौन नहीं लगा पाएगा? क (ब्रह्मा) अर्थात् रोहिणी दास्त्र (अश्विनी) भे (नक्षत्र में)। देखते देखते सेकेंडों में तुरंत समाधान हो गया, जिसको लेकर मैं घंटों परेशान था।
बाधकग्रहों पर शोधकार्य के दौरान प्राप्त अनुभव
निष्कर्ष -
इन घटनाओं से एक महत्वपूर्ण शिक्षा मिली, हमें इन्हीं मामलों में तो गुरु की जरूरत होती है। वो अतिरिक्त स्पेस मिटा देते हैं या आवश्यक स्पेस लगा देते हैं और हम शिष्य छिन्नसंशयाः हो जाते हैं। ज्योतिष भी समाज की इसी प्रकार तो सेवा करता है, जो उनके भाग्य में तो है लेकिन अज्ञानतावश उनका दृष्टिकोण वहाँ पहुँच नहीं पा रहा है ज्योतिष अनावश्यक स्पेस को मिटा देता है या आवश्यक स्पेस (उपाय आदि) लगा देता है, नवीन दृष्टिकोण से जो आपको प्राप्त होने के बावजूद नहीं मिल पा रहा है उसे प्राप्त करा देता है। जो ज्योतिष शास्त्र स्वयं वेद का नेत्र है वो क्या आपके जीवन का पथप्रदर्शन नहीं करेगा? निश्चित रुप से करेगा और करोडों वर्षों से करता ही आ रहा है।
देखिए कहने को तो उक्त गलती छोटी कही जा सकती है, लेकिन कैसे उसके कारण पूरा अर्थ ही विलुप्त हो रहा था। इसलिए भास्कराचार्य जी ने ज्योतिष पढ़ने के अधिकारी बनने के लिए अनिवार्य योग्यताओं में शब्दशास्त्र (व्याकरणशास्त्र) में अतिशयेन पटुः होना लिखा है। अगर अतिशयेन पटुः होंगे तो क्रमाच्च रागद्विशरीरभाजाम् नहीं लिखेंगे। लिखा भी हो तो समझ में आ जाएगा कि इनको मिलाकरके लिखना है। यदि अतिशयेन पटु होंगे तो जबरदस्ती द्विशरीरभाजाम् का अवांछित राहु-केतु अर्थ नहीं करेंगे।
उपसंहार -
सुधि जनों ! ज्योतिष बहुत गहन शास्त्र है। यह एक ऐसा इकलौता शास्त्र है जो सभी शास्त्रों के रक्षण पोषण में सहायता प्रदान करता है। यह शास्त्र केवल ज्योतिष शास्त्रज्ञों का ही नहीं बल्कि अन्य भी सभी शास्त्रज्ञों के योगक्षेम का वहन करने में सहायक सिद्ध होता है। यह लोकोपकारी विद्या मातृवत् हमारा रक्षण, पोषण और पालन करती है। इसलिए मैं आप सभी लोगों से करबद्ध निवेदन करता हूँ, तन्मयता से इस शास्त्र का मनन चिन्तन करें, अध्ययन करें और बहुत सावधानी पूर्वक फलादेश में प्रवृत्त हों। कदाचित् आपकी किसी गलती के कारण इस महान् शास्त्र को उपाहास का पात्र कोई न बना ले।
© ज्यौतिषाचार्य पं. ब्रजेश पाठक - Gold Medalist
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