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Wednesday 6 May 2020

ईश्वर साक्षात्कार के बाद मुक्ति कब ???






ईश्वर साक्षात्कार के बाद मुक्ति कब ???



कुछ समय पहले मेरे एक मित्र ने मुझसे बहुत जबरदस्त प्रश्न पूछा था आज उसका सटीक शास्त्रीय उत्तर आप सबके साथ साझा कर रहा हूँ।

#प्रश्न- ईश्वर(परमब्रह्म) सच्चिदानन्द(त्रिकालाबाधित), अखण्ड(सजातीय-विजातीय-स्वगतभेदशून्य), सर्वदा विद्यमान, प्रकाशरुप, चैतन्यस्वरुप, आनन्दघन, सर्वशक्तिमान परमात्मा जो जीवों के लिए एकमात्र लक्ष्य हैं। जिनके दर्शन मात्र से सारा अज्ञान समाप्त हो जाता है, जिनके दर्शन के बाद कुछ भी देखना बाकी नहीं रह जाता।
शास्त्रों में भी कहा गया है-

#भिद्यते_हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते_सर्वसंशयाः।
#क्षीयन्ते_चास्य_कर्माणि_तस्मिन_दृष्टे_परावरे।।
अर्थात- उस कारण कार्यरुप ब्रह्म का साक्षात्कार होने पर साधक की हृदय-ग्रन्थि खुल जाती है, सम्पूर्ण सन्देह दूर हो जाते हैं और उसके सञ्चितादि कर्म नष्ट हो जाते हैं।
(मुण्डकोपनिषद् २/२/८)

यदि उपरोक्त सभी बातें सत्य हैं तो उन दिव्याऽतिदिव्य ईश्वर के दर्शन के बाद सद्य ही साधक मोक्ष क्यों नहीं प्राप्त कर लेता???
ऐसे कई उदाहरण हैं जहाँ मुमुक्षु (मोक्ष की इच्छा रखने वाला) को भी ईश्वर साक्षात्कार के बाद तुरंत ही मोक्ष प्राप्त नहीं हुआ जबकि उनकी तपश्चर्या का एकमात्र लक्ष्य मोक्ष ही था।

#उत्तर- उपरोक्त सभी बातें शत प्रतिशत सत्य हैं।
इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए हमें मोक्ष और कर्मभेदों की प्रवृत्ति को समझना होगा। मोक्ष का शाब्दिक अर्थ होता है मुक्त होना, छूटकारा पा लेना। यहाँ मोक्ष एक पारिभाषिक शब्द है -जिसका अर्थ है जीवनमुक्त हो जाना; शरीर छोड़ना जीवनमुक्ति(मोक्ष) का लक्षण नहीं है, जबकि सांसारिक मनुष्य इसे ही मोक्ष का लक्षण मानते हैं। #वेदान्तसार नामक ग्रंथ के ३९वीं कारिका के प्रथम परिच्छेद में जीवनमुक्त व्यक्ति का लक्षण बताते हुए आचार्य सदानन्द यति कहते हैं-

जीवनमुक्तोनाम स्वस्वरूपाखण्डब्रह्मज्ञानेन तद्ज्ञानबाधनद्वारा
स्वस्वरूपाखण्डब्रह्मणिसाक्षात्कृतेऽज्ञानतत्तत्कार्यसञ्चितकर्मसंशयविपर्ययादीनामपिबाधितत्वादखिलबाधरहितोब्रह्मनिष्ठः।
अर्थात- जब आत्मा और ब्रह्म की एकता का ज्ञान हो जाता है, तब उस ज्ञान से आत्मविषयक सम्पूर्ण अज्ञान नष्ट हो जाता है और अद्वितीय ब्रह्म का साक्षात्कार हो जाता है। इस दशा में मूल #अज्ञान और उसके #कार्यरुप स्थूल-सूक्ष्म दोनों प्रपञ्च #सञ्चित कर्म अर्थात ज्ञानोत्पत्ति के पूर्व अनारब्ध फलवाले कर्म, #संशय अर्थात देह से अतिरिक्त ब्रह्मस्वरूप आत्मा है या नहीं अथवा ब्रह्मात्मज्ञान से मोक्ष होगा या नहीं इस प्रकार की विचिकित्सा। #विपर्यय देहादिकों में आत्माभिमानरूप, आदि शब्द से बाह्य प्रपञ्च में सत्यत्व बुद्धि ये सब जिसके नष्ट हो जाते हैं उस ब्रह्मनिष्ठ को जीवनमुक्त कहते हैं।

अब यहाँ एक और प्रश्न #जीवनमुक्त_को_शरीरमुक्ति_कब_मिलती_है? 

इसका जवाब मिल जाए तो उपर्युक्त प्रश्नसंबंधी सभी शंकाएँ निर्मूल हो जाएंगी।
इसके लिए हमें कर्मभेद और उनकी प्रवृत्ति को समझना होगा। लेकिन उससे पहले हमें एक बात अच्छी तरह जानना और स्वीकार कर लेना चाहिए कि यह सम्पूर्ण जगत् ईश्वर के बनाए हुए नियमों पर चल रहा है और स्वयं ईश्वर भी इन नियमो को नहीं तोडते।

अब कर्मभेद और उनकी प्रवृत्ति को समझते हैं-
कर्म के तीन भेद हैं-
१)सञ्चित कर्म
२)क्रियमाण कर्म, और
३)प्रारब्ध कर्म

१)सञ्चित कर्म-सञ्चित कर्म वे हैं जिनका फल-भोग मिलना अभी प्रारम्भ नहीं हुआ है, आगे प्रारम्भ होने वाला है।

२)क्रियमाण कर्म- क्रियमाण कर्म वे हैं, जो वर्तमान में किए जा रहे हैं।

३)प्रारब्ध कर्म-प्रारब्ध कर्म वे हैं जिनका फल-भोग मिलना प्रारम्भ हो गया है।

         ब्रह्मसाक्षात्कार या ब्रह्मज्ञान(अहं ब्रह्माऽस्मि कि अनुभूति) होने पर सञ्चित तथा क्रियमाण कर्म तो नष्ट हो जाते हैं परन्तु  ईश्वर की बनायी व्यवस्था के अनुसार प्रारब्ध कर्मों को तो भोगना ही पड़ता है। कहा गया है #प्रारब्ध_कर्मणां_भोगादेव_क्षयः अर्थात प्रारब्ध कर्म भोगने से ही नष्ट होते हैं।
प्रारब्ध कर्म की समाप्ति होते ही शरीरमुक्ति भी उस ब्रह्मवेत्ता को प्राप्त हो जाती है।

© पं. ब्रजेश पाठक "ज्यौतिषाचार्य"
२२/०४/२०१७

सौरमास व चान्द्रमास_गणना


सौरमास_व_चान्द्रमास_गणना....

मास की गणना भारतवर्ष में दो तरह से प्रचलित है।
एक चान्द्रमास जिसके दिनों को तिथि कहा जाता है। ये 15-15 दिनों शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष से मिलकर लगभग 30 दिनों का होता है। शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष के तिथियों का नाम 1-14 तक समान ही है शुक्ल पक्ष की अंतिम तिथि को पूर्णिमा और कृष्ण पक्ष की अंतिम तिथि को अमावस्या कहा जाता है। इस तरह तिथियों की संख्या कहीं कहीं नाम के आधार पर 16 मानी गई है।
भारतवर्ष में अधिकांश व्रत त्योहार चान्द्रमास के आधार पर ही मनाए जाते हैं। धर्मकार्य अनुष्ठान आदि के लिए चान्द्रमास ही प्रशस्त है। चान्द्रमास भारतवर्ष के बंगाल, उड़िसा आदि क्षेत्रों में आज भी दैनिक व्यवहार में प्रचलित है।

दूसरा है सौरमास ये भी लगभग 30 दिनों का होता है। एक राशी में 30अंश होते हैं, और सूर्य को 1अंश चलने में लगभग एक दिन लगता है। इसप्रकार लगभग 30 दिनों का एक सौरमास स्पष्ट हो जाता है।
इस मास का नाम तथा सूर्य के गत अंश के आधार पर दर्शाया जाता है। राशियों में पहली राशी मेष है, सूर्य मेष राशी में वैशाख महीने में आता है उस दिन भारतवर्ष में वैशाखी पर्व भी मनाया जाता है इसलिए सौरमास की गणना वैशाख से करते हैं अर्थात् वैशाख मास पहला सौरमास होता है। यह मास गणना उत्तर भारत के उत्तराखंड, उत्तरांचल, आसाम, नेपाल आदि क्षेत्रों में दैनिक जीवन में जनसामान्य द्वारा आज भी व्यवहार किया जाता है।
जैसे किसी का जन्म माघ 18गते में हुआ है तो वैशाख में मेष राशी इस तरह गणना करते हुए आगे बढ़ें तो माघ में मकर राशी मिलेगी। इसका अर्थ हुआ कि सौरमास के आधार पर जब सूर्य मकर राशि में थे उस समय 18 अंश को पार कर चुकने के पश्चात् वर्तमान 19वें अंश में सूर्य गोचर रहते जातक का जन्म हुआ है।

पं. ब्रजेश पाठक "ज्यौतिषाचार्य"
B.H.U., वाराणसी।

Tuesday 5 May 2020

ग्रहों में परस्पर बलवृद्धि


ग्रहों में परस्पर बलवृद्धि





जिज्ञासु के प्रश्न- जय श्री राम ! कृपा करके कौन सा ग्रह किस ग्रह के साथ कैसा फल प्रदान करता है,तथा उसका फल कब विपरिणाम होता है ,यह भी बताएँ ।
मेरा उत्तर- यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि कई बार इस विषय पर ज्योतिर्विद भी संशय में पद जाते हैं | फलादेश में कुशलता पाने के लिए इनको जानना बहुत जरुरी है |
इस प्रश्न का बहुत ही सटीक उत्तर हमें महानतम् ज्योतिर्विद् श्री वैद्यनाथ दीक्षित जी द्वारा रचित ग्रन्थ “जातक पारिजात” में देखने को मिलता है-

अर्केण मन्दः, शनिना महिसुतः, कुजेन जीवो गुरुणा निशाकरः ।
सोमेन शुक्रोऽसुरमन्त्रिणा बुधो बुधेन चन्द्रः खलु वर्द्धते सदा ॥
जा.पा.अ.2श्लो.61

अर्थात्- सूर्य के साथ शनि हो तो शनि का बल बढ़ता है। शनि के साथ रहने पर मंगल का, मंगल के साथ रहने पर गुरु का, गुरु के साथ रहने पर चन्द्रमा का, चंद्रमा के साथ रहने पर शुक्र का, शुक्र से बुध का व बुध से चन्द्रमा का बल बढ़ता है।





भावमञ्जरी” नामक अपने ग्रन्थ में ज्योतिर्विद् मुकुन्द दैवज्ञ पर्वतीय जी ने भी “जातक पारिजात” के इस सूत्र का समर्थन किया है |

यमः पतङ्गेन यमेन भूजनिरार्य्योऽसृजा वाक्पतिना हिमद्युतिः ।
कवि कलेशेन सितेन सोमजः सुधाकरः सोमसुतेन वर्द्धते ।।
भावमञ्जरी, प्र.प्र.श्लो.12

अर्थात्- सूर्य के साथ रहने पर शनि का बल बढ़ता है । इसी प्रकार शनि से मंगल का, मंगल से गुरु का, गुरु से चन्द्रमा का, चन्द्रमा से शुक्र का, शुक्र से बुध का तथा बुध से चन्द्रमा का बल बढ़ता है ।


इसे भी पढ़ें- सपात दोष तथा ग्रहण दोष


समीक्षा-


1. सूर्य-शनि का योग मन्दार्क योग के नाम से प्रसिद्ध है । यह अशुभ योगों में परिगणित होता है।
2. शुभग्रहों के षष्ठ-सप्तम-अष्टम् भावों में सहावस्थान से अधियोग बनते हैं।
3. गुरु चन्द्रमा से गजकेसरी योग बनता है।
3. शनि-मंगल से द्वन्द्व योग बनता है, जो कष्टदायक ही बताया गया है।
4. मंगल गुरु का योगफल शास्त्रों में अच्छा बताया गया है।
5. चन्द्र शुक्र का योगफल मिश्रित बताया गया है।
6. बुध शुक्र के योग को लक्ष्मी योग कहा जाता है ये योग बहुत शुभ है ।
7. चन्द्र बुध का योगफल बहुत शुभ बताया ।


निष्कर्ष-


1. यहाँ बताए गए ग्रह योग अच्छे नहीं होते बल्कि इन ग्रहयोगों से उक्त ग्रह बलवान होते हैं, यही भाव है ।
2. बलवान होने के पश्चात वे पाराशरीय नियमानुसार अपने शुभाशुभ भावजन्य या दशाजन्य फल जातक को प्रदान करते हैं ।
3. इस श्लोक के सन्दर्भ में सिर्फ ग्रहयुति नहीं बल्कि ग्रहों के चतुर्विध संबंधों को ग्रहण करना चाहिए।


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प्रसंगानुसार कुछ अनमोल ध्यातव्य सूत्र-


1. सूर्य-बुध का योग बुधादित्य योग के नाम से प्रसिद्ध है जो राजयोग की श्रेणी में गिना जाता है । क्योंकि बुध को अस्त दोष सबसे कम लगता है ।
2. गुरु के साथ राहु-केतु का योग गुरु चण्ड़ाल योग बनाता है, ये बहुत अशुभ योग है ।
3. मंगल के साथ राहु-केतु का योग अंगारक योग कहा जाता है, ये बहुत अशुभ योग माना जाता है।
4. शनि के साथ चंद्र का योग विष योग कहलाता है, ये भी बहुत अशुभ योग है ।
5. चन्द्र व सूर्य का योग दर्शयोग कहलाता है, ये सबसे ज्यादा अशुभ है, पूरी कुंडली को निर्बल कर देता है।
6. दो या दो से अधिक पाप ग्रह जिस राशि व भाव में हों उस अंग में रोग, घाव या आपरेशन का योग बनाते हैं।
7. सूर्य के साथ चन्द्रमा, पाँचवें भाव में स्थित वृहस्पति, चतुर्थ में बुध, सप्तम में मार्गी शनि, षष्ठ में शुक्र व द्वितीय भाव में मंगल ग्रह निष्फल होता है।
8. सप्तम में शुक्र, पंचम में अशुभ राशिस्थ गुरु व चतुर्थ में बुध यदि अकेले हों तो अरिष्ट फल ही करते हैं।
9. नवम में सूर्य, चतुर्थ में हीनबली चन्द्रमा, जातक पंचम में गुरु, तृतीय में मंगल व सप्तम में शुक्र अकेले हों तो दुःखप्रद ही होते हैं।
10. चर राशि से 11वें भाव में, स्थिर राशि से नवम भाव में और द्विस्वभाव राशि से सप्तम भाव में स्थित ग्रह या भावेश अत्यंत कष्टकारक होते हैं।
11. बाइसवें द्रेष्काण का स्वामी परम अनिष्टकारक होता है।
12. लाभ भाव में सभी ग्रह, षष्ठ भाव में सूर्य, चतुर्थ भाव में पक्षबली चन्द्रमा, त्रिकोण भावों में शुभ राशियों में स्थित गुरु, लग्न में शुक्र व तृतीय भाव में स्थित शनि व उच्च राशि में स्थित ग्रह कुछ न कुछ शुभफल अवश्य करते हैं। यदि इनके साथ कोई शुभ या कारक ग्रहयुति हो तो कहना ही क्या है !
13. 6.8.12 भावों में स्थित ग्रह या राहु-केतु के साथ रहने वाले ग्रह या नीच व शत्रुराशि वाले ग्रह जो शुभफल देना हो वो तो देते ही हैं परन्तु अपना अशुभ फल अवश्य ही देते हैं ।
14. ग्रह यदि लग्नकुंड़ली में अच्छा(उच्च, स्वगृही आदि) हो परन्तु नवमांश कुंडली में शुभराशि में न हो तो शुभफल नहीं कर पाता, अशुभ जरूर कर देता है ।
15. कुंडली देखने से पहले लग्न, सूर्य व चन्द्रमा की ठीक से समीक्षा कर लेनी चाहिए। इनके कमजोर रहने पर अच्छे से अच्छे राजयोग व महापुरुष योग भी अपना पूरा प्रभाव नहीं दिखा पाते ।


-    पं. ब्रजेश पाठक "ज्यौतिषाचार्य"