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Friday 29 March 2019

गृहक्लेश निवारण

कुछ दिन पहले किसी जिज्ञासु ने पूछा था आज कल गृहक्लेश बढ़ता जा रहा है। लोग इसका उपाय पूछते हैं। इसका प्रभावशाली शास्त्रीय उपाय क्या है?

मित्रों, गृहक्लेश का कारण हमारे छः आतंरिक शत्रुओं का अनियन्त्रित होना है। ये छः आभ्यन्तर शत्रु या विकार हैं-
1.काम
2. क्रोध
3. लोभ
4. मोह
5. मद और
6. मात्सर्य ।

आजकल कलियुग का ऐसा प्रभाव है, समय और शासन तंत्र का ऐसा कुचक्र है लोग संस्कारहीन होते जा रहे हैं। अर्मयादित जीवन शैली, अशास्त्रीय जीवन, गलत खान-पान, गैजेट्स पर बहुत ज्यादा आसक्ति आदि कारण से लोगों के अन्दर उपर्युक्त विकृतियों की बेतहाशा अभिवृद्धि देखी जा रही है।
आज के समय में धर्म-संस्कृति की मर्यादा का न तो लोगों को ज्ञान है और न ही उन्हें इसे जानने तथा पालन करने की इच्छा ही है। संस्कारहीन, अमर्यादित परिवेश में पलने बढ़ने के कारण वर्तमान पीढ़ी आचारहीन तथा पथभ्रष्ट होकर अपना अमूल्य मानव जीवन और बेसकीमती समय का का दुरुपयोग करते हुए पतन होने से अधोगति को प्राप्त हो रही है। जिससे मानव शक्ति का अवमूल्यन हो रहा है।
एक बहुत बढ़िया सुभाषित स्मरण हो आया। उक्त जिज्ञासा के सन्दर्भ में यह सुभाषित बहुत प्रासंगिक है-.

"काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम्।
व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा।।"

अर्थात्- काव्यशात्र(यह शब्द यहाँ संस्कृत वाङ्मय का उपलक्षण है।) का आनन्द लेने में बुद्धिमान व्यक्ति का समय व्यतीत होता है। लेकिन मूर्खों का समय व्यसन में निद्रा में अथवा कलह में व्यतीत होता है।

तो यह निश्चित हुआ कि गृहक्लेश निवारण का पहला उपाय है सुसंस्कृत शास्त्रसम्मत मर्यादित जीवन।
दूसरा कर्मकाण्ड़ परक बहुत प्रभावशाली उपाय है हरिनाम संकीर्तन।
यदि गृहक्लेश से बहुत परेशान हों तो हरिनाम संकीर्तन कराना चाहिए।
कहा गया है-

सर्वरोगोप्रशमनं सर्वोपद्रवनाशनम्।
शान्तिदं सर्वऽरिष्टानां हरेर्नामानुकीर्तनम्।।

अर्थात्- भगवन्नाम संकीर्तन सभी रोगों का उपसमन करने वाला है, सभी तरह के उपद्रवों का नाश करने वाला है तथा सभी तरह के अरिष्टों की शान्ति करने वाला है।

पुनश्च-
आत्यन्तिकं व्याधिहरं जनानां,
चिकित्सितं वेदविदो वदन्ति ।
संसारतापत्रयनाशबीजं,
गोविन्द-दामोदर-माधवेति ।।

अर्थात्- वेदवेत्ताओं का कहना है कि गोविन्द-दामोदर और माधव यह भगन्नाम मनुष्यों के अत्यंत घातक रोगों का हरण वाला भेषज्(औषधि) है। यह संसार के आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक त्रिविध तापों का नाश करने वाला बीज मन्त्र है।

पुनश्च-
आधयोर्व्याधयोर्यस्य स्मरणान्नामकीर्तनात्।
तदेव विलयं यान्ति तमनन्तं नमाम्यहम् ।।

अर्थात्- जिसके स्मरण से और नाम संकीर्तन से मानसिक और शारीरिक बाधाएँ तत्काल विनष्ट हो जाती हैं, उस अनन्त को मैं प्रणाम करता हूँ।

अब यह प्रश्न हो सकता है कि नाम संकीर्तन कैसे हो???
उसके लिए आप घर के विभिन्न स्थानों में भगवान का नाम लिखें और जब जब नजर पड़े भगवान का नाम गुनगुनाते रहें।

यदि अनुष्ठान के रूप में कराना चाहें तो आप 24 घण्टे का अखण्ड़ हरिकीर्तन करा सकते हैं।
जिसके निम्नलिखित प्रकल्प हो सकते हैं-

1. अखण्ड़ रामचरितमानस पाठ
2. अखण्ड़ सुन्दरकाण्ड़ या हनुमानचालिसा पाठ
3. अखण्ड़ हरिकीर्तन इस मंत्र से
हरे राम! हरे राम! राम राम हरे हरे!
हरे कृष्ण! हरे कृष्ण! कृष्ण कृष्ण हरे!

 
अथवा इस मंत्र से-
कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने ।
प्रणत क्लेश नाशाय गोविन्दाय नमो नमः।।

गणेश पूजन, कलश पूजन आदि करके भगन्नाम संकीर्तन पूरा करें फिर 24 घंटे के पश्चात हवन प्रसाद वितरण/भण्डारा आदि करें।

© पं. ब्रजेश पाठक "ज्यौतिषाचार्य"
     B.H.U., वाराणसी।

Thursday 28 March 2019

हास्य नहीं सत्य




मन कि बात

मित्रों, अपने दैनिक जीवन में कभी हम किसी अनुभवी व्यक्ति के द्वारा कोई ऐसी घटना का जिक्र सुनते हैं जिस पर हमें सहसा विश्वास नहीं होता। बहुत बार तो हम उस घटना और घटना सुनाने वाले व्यक्ति का मजाक तक उड़ाने लगते हैं। लेकिन आपको यह सलाह देना चाहूँगा कि ऐसा करके हम उनका नहीं अपनी अज्ञानता का मजाक उड़ा रहे होते हैं। इस तरहसकी बातों पर गम्भीरता से विचार करें और अपने स्तर पर यदि पड़ताल करें तो न केवल हम उसकी सत्यता जान पायेंगे बल्कि हमारा ज्ञानवर्धन होगा और हम अपने राष्ट्र के ज्ञान विज्ञान को कहीं बेहतर तरीके से जान समझ पायेंगे।
ऐसा ही एक वाकया मेरे साथ हुआ, जब श्रीभागवतानन्द गुरु जी से चर्चा के दौरान उन्होंने एक कहानी सुनाई जो उन्होंने भी किसी और से सुनी थी। उस कहानी में एक वैद्य का जिक्र था जो हकीक(एक प्रकार का रत्नीय पत्थर) की सब्जी बनाकर खाता था । हमदोनों ही इस बात से आश्चर्यचकित थे। मुझे रत्नों की थोड़ी बहुत  पहचान भी है और ज्योतिष ज्ञान से जुड़े होने के कारण उसका अध्ययन भी करना पड़ता है, इसलिए इस घटना को एकबारगी मैं पचा नहीं पा रहा था। रत्नों के भस्म सेवन करने और रत्नों को घीसकर विभिन्न रोगों के निवारण के लिए अंगों में लेपित करने आदि के बारे में पढ़ा था जरुर पर सब्जी बनाकर खाने वाली बात.... I am shocked.
फिर मैंने गूगल गुरु से हकीक की सब्जी के बारे में पूछा पर उन्होंने अपने हाथ खड़े कर दिए।
खैर... बात आई गई चली गई। पर यह प्रश्न कहीं न कहीं मेरे दिमाग में बैठा हुआ था।
होली के दिन मैं घर पर था। कुछ समय पहले ही मरणाशौच समाप्त होने की वजह से हमलोग होली नहीं खेल रहे थे। तो मैंने खाली समय का सदुपयोग करने के उद्देश्य से अपना ट्रंक खोला और पुस्तकें देखने लगा। वहाँ पहले ही मुझे "भावप्रकाश निघण्टु" मिल गई, मैंने निर्णय किया आज इसी को पढ़ा जाएगा। उस किताब में मुझे हकीक की जानकारी मिली, जिसमें उसके स्वाद आदि का जिक्र था। उसे देखकर मैं स्तब्ध सा रह गया । बाप रे.... ऐसे वैद्य भी हैं हमारे भारत में वो भी आज के समय में भी। अद्भुत....
शाम को अपने गुरुजी वैद्यनाथ मिश्र गुरुजी से मुलाकात हुई तो मैंने अपना ये अनुभव उनसे साझा किया। उन्होंने बताया कि अपने गाँव में उन्होंने कई आदिवासी जनजाति के लोगों को विभिन्न प्रकार के पहाड़ी पत्थर चुन कर लाते और उन्हें सब्जी बनाकर खाते देखा है।
यह सुनकर मैं और भी रोमांचित हो उठा।
सत्यवाक् सत्यवाक् सत्यवाक्....

बहुत बडी सीख मिली, हमारे द्वारा सुनी गई घटना हमें असंभव या हास्यास्पद सी लग सकती है इसका मतलब ये नहीं हम बुद्धिमान हैं, इसका मतलब ये है कि हम अज्ञानी हैं, हमें उस विधा का ज्ञान नहीं है।

नोट- पत्थर को बिल्कुल आम सब्जी की तरह छोंका लगाया जाता है। मसाले, टमाटर, नमक, पानी आदि ड़ालकर खौलाया व पकाया जाता है। फिर सावधानी पुर्वक सभी पत्थरों को सब्जी से छानकर बाहर निकाल दिया जाता है। फिर सब्जी का सेवन करते हैं।

चित्र 1- भावप्रकाश निघण्टु का सम्बद्ध पृष्ठ
चित्र 2- हकीक रत्न का चित्र

आपका भी कुछ ऐसा अनुभव हो तो जरूर साझा करें। इस घटना या चर्चा से संबंधित कोई बात आपको ज्ञात हो तो जरूर हमारा ज्ञानवर्धन करें।

© पं. ब्रजेश पाठक "ज्यौतिषाचार्य"
B.H.U., वाराणसी।

Wednesday 27 March 2019

बुद्धि के भेद


अक्सर देखा जाता है कि व्यवहार में लोग धी, बुद्धि, स्मृति, मेधा, मति, प्रज्ञा आदि शब्दों को समानार्थी समझते हुए प्रयोग करते हैं। पर वस्तुतः ये समानार्थी लगने वाले शब्द विशेष परिभाषाओं को धारण करते हैं।
आइए इनको समझें।

धी-
धी: बुद्धि: वस्तुग्रहणशक्ति:।
उपदिष्टग्रहणे शक्ति: धी:। 
अर्थात्- बुद्धि शब्द धी का वाचक है। धी का अर्थ उपदेश किए गए या बताए गए वस्तु को ग्रहण करने की अर्थात् अधिगम क्षमता से है। बुद्धि और धी में थोड़ा अन्तर है। धी संग्रहण शक्ति है, जबकि बुद्धि विवेचन शक्ति, निर्णय देने वाली है। धी के द्वारा हमारा मस्तिष्क जो संग्रहित करता है, उसका विवेचन बुद्धि करती है।
इसलिए अक्सर भाषण आदि में प्रबुद्ध लोग सभा को सम्बोधित करते हुए धीमान् शब्द का प्रयोग करते हैं।

स्मृति-
स्मृतिरतीतविचारे शक्ति:। स्मृति: अतीतविचारशक्ति:। स्मृति: अतीतस्मरणम्, गृहीतस्य विच्छेदेन धारयितुं शक्ति: स्मृति:।
अर्थात्- स्मृति कहते हैं स्मरण शक्ति को। बीती हुई घटना या अतीत की बातों को स्मरण रखने की क्षमता स्मृति कहलाती है। आप जो  पढ़ते हैं उसे याद करके याद रखने की क्षमता भी स्मृति ही है। इसलिए इसे धारणा शक्ति भी कहते हैं।

मेधा-
मेधा प्रज्ञा वस्तुविवेकशक्ति:। मेधा ग्रन्थधारणशक्ति:।
अर्थात्- मेधा नाम की जो प्रज्ञा है, वह वस्तुविवेक शक्ति को इंगित करती है । इसलिए मेधा के भाव में प्रज्ञा शब्द का भी प्रयोग होती है। शास्त्रों को कण्ठस्त करके स्मरण रखने की क्षमता भी मेधा कही जाती है।

मति-
अनागतज्ञानं मति:।
अर्थात्- स्वतः आपके अन्तर्मन से प्रस्फुरित होने वाला ज्ञान मति है।

- पं. ब्रजेश पाठक "ज्यौतिषाचार्य"
   B.h.u., वाराणसी।

Wednesday 6 March 2019

'ज्ञ' का उच्चारण स्थान

यह पोस्ट बहुत ही ज्ञानवर्धक है।इसे अवश्य पढें
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ज्ञ' वर्ण के उच्चारण पर शास्त्रीय दृष्टि-
संस्कृत भाषा मेँ उच्चारण की शुद्धता का अत्यधिक महत्त्व है।
शिक्षा व व्याकरण के ग्रंथोँ मेँ प्रत्येक वर्ण के उच्चारण स्थान और ध्वनि
परिवर्तन के आगमलोपादि नियमोँ की विस्तार से चर्चा है। फिर
भी "ज्ञ" के उच्चारण पर समाज मेँ बडी भ्रांति है। और
जब सनातन वैदिक हिँदू धर्म की पीठ पर छुरा घोँपने वाले
कुलवर्णादिविहीन उपद्रवियोँ को तथाकथित
धर्माचार्योँ की अनदेखी से खुली छूट
मिली हो तो इस भ्रांति का व्यापक होना नैसर्गिक ही है!
ज्+ञ्=ज्ञ
कारणः-'ज्' चवर्ग का तृतीय वर्ण है और 'ञ्' चवर्ग का
ही पंचम वर्ण है।
जब भी 'ज्' वर्ण के तुरन्त बाद 'ञ्' वर्ण आता है तो
'अज्झीनं व्यञ्जनं परेण संयोज्यम्' इस महाभाष्यवचन के अनुसार
'ज् +ञ'[ज्ञ] इस रुप मेँ संयुक्त होकर 'ज्य्ञ्' ऐसी ध्वनि
उच्चारित होनी चाहिये।।
किँतु ये भी इन हिँदू धर्म के दीमकोँ का एक भ्रामक मत
है।।
प्रिय मित्रोँ!
"ज्ञ"वर्ण का यथार्थ तथा शिक्षाव्याकरणसम्मत शास्त्रोक्त उच्चारण 'ग्ञ्'
ही है। जिसे हम सभी परंपरावादी लोग सदा
से ही "लोक" व्यवहार करते आये हैँ।
कारणः- तैत्तिरीय प्रातिशाख्य 2/21/12 का नियम क्या कहता है-
स्पर्शादनुत्तमादुत्तमपराद् आनुपूर्व्यान्नासिक्याः।।
इसका अर्थ है- अनुत्तम, स्पर्श वर्ण के तुरन्त बाद यदि उत्तम स्पर्श वर्ण
आता है तो दोनोँ के मध्य मेँ एक नासिक्यवर्ण का आगम होता है।
यही नासिक्यवर्ण शिक्षा तथा व्याकरण के ग्रंथोँ मेँ यम के नाम से
प्रसिद्ध है। 'तान्यमानेके' (तै॰प्रा॰2/21/13) इस नासिक्य वर्ण को
ही कुछ आचार्य 'यम' कहते हैँ। प्रसिद्ध शिक्षाग्रन्थ
'नारदीयशिक्षा' मेँ भी यम का उल्लेख है।अनन्त्यश्च
भवेत्पूर्वो ह्यन्तश्च परतो यदि। तत्र मध्ये यमस्तिष्ठेत्सवर्णः पूर्ववर्णयोः।।
औदव्रजि के 'ऋक्तंत्रव्याकरण' नामक ग्रंथ मेँ भी 'यम' का स्पष्ट
उल्लेख है।'अनन्त्यासंयोगे मध्ये यमः पूर्वस्य गुणः' अर्थात् वर्ग के
शुरुआती चार वर्णो के बाद यदि वर्ग का पाँचवाँ वर्ण आता है तो दोनो के
बीच 'यम' का आगम होता है,जो उस पहले अनन्तिम-वर्ण के समान
होता है।
प्रातिशाख्य के आधार पर यम को परिभाषित करते हुए सरल शब्दों मेँ
यही बात भट्टोजी दीक्षित भी
लिखते हैँ-
"वर्गेष्वाद्यानां चतुर्णां पंचमे परे मध्य यमो नाम पूर्व सदृशो वर्णः प्रातिशाख्ये
प्रसिद्धः" -सि॰कौ॰12/ (8/2/1सूत्र पर)
भट्टोजी दीक्षित यम का उदाहरण देते हैँ।
पलिक्क्नी 'चख्खनतुः' अग्ग्निः 'घ्घ्नन्ति'।
यहाँ प्रथम उदाहरण मेँ क् वर्ण के बाद न् वर्ण आने पर बीच मेँ क्
का सदृश यम कँ(अर्द्ध) का आगम हुआ है। दूसरे उदाहरण मेँ खँ कार तथैव गँ
कार यम, घँ कार यम का आगम हुआ है।
अतः स्पष्ट है कि यदि अनुनासिक स्पर्श वर्ण के तुरंत बाद अनुनासिक स्पर्श
वर्ण आता है तो उनके मध्य मेँ अनुनासिक स्पर्श वर्ण के सदृश यम का आगम
होता है।
प्रकृत स्थल मेँ-
ज् + ञ्
इस अवस्था मेँ भी उक्त नियम के अनुसार यम का आगम होगा।
किस अनुनासिक वर्ण के साथ कौन से यम का आगम होगा।विस्तारभय से सार रुप
दर्शा रहे हैँ। तालिक देखेँ-
स्पर्श अनुनासिक वर्ण यम
क् च् ट् त् प् कँ्
ख् छ् ठ् थ् फ् खँ्
ग् ज् ड् द् ब् गँ्
घ् झ् ढ् ध् भ् घँ्
यहाँ यह बात ध्यातव्य है कि यम के आगम मेँ जो'पूर्वसदृश' पद प्रयुक्त हुआ
है , उसका आशय वर्ग के अन्तर्गत संख्याक्रमत्वरुप सादृश्य से है
सवर्णरुप सादृश्य से नहीँ। ये बात उव्वट और माहिषेय के
भाष्यवचनोँ से भी पूर्णतया स्पष्ट है ।जिसे भी हम
विस्तारभय से छोड रहे हैँ।
अस्तु हम पुनः प्रक्रिया पर आते हैँ-
ज् ञ् इस अवस्था मेँ तालिका के अनुसार 'ग्'यम का आगम होगा-
ज् ग् ञ्
ऐसी स्थिति प्राप्त होने पर चोःकु [अष्टाध्यायी सूत्र
8/2/30]
सूत्र प्रवृत्त होता है।
'ज्' चवर्ग का वर्ण है और 'ग' झल् प्रत्याहार मेँ सम्मिलित है, अतः इस सूत्र
से 'ज्' को कवर्ग का यथासंख्य 'ग्' आदेश हो जायेगा। तब वर्णोँ की
स्थिति होगी-
ग् ग् ञ्
इस प्रकार हम देखते हैँ कि ज् का संयुक्त रुप से 'ज्ञ' उच्चारण
की प्रक्रिया मेँ उपर्युक्त विधि से 'ग् ग् ञ्' इस रुप से उच्चारण होता
है। यहाँ जब ज् रुप ही शेष नहीँ रहा तो 'ज् ञ्' इस
ध्वनिरुप मेँ इसका उच्चारण कैसे हो सकता है? अतः 'ज्ञ' का सही
एवं शिक्षाव्याकरणशास्त्रसम्मत उच्चारण 'ग्ञ्' ही है।।

श्रीमान शंकर सन्देश द्वारा प्रेषित

जय श्री राम !!!

प्रो.प्रमोदकुमारशर्मा
विभागाध्यक्ष, व्याकरण
राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय

सपात दोष तथा ग्रहण दोष


चन्द्र+राहु/केतु हो और शराभाव हो तो इसको चन्द्रग्रहण_दुर्योग और सूर्य+राहु/केतु हो और शराभाव हो तो इसको सूर्यग्रहण_दुर्योग कहा जाता है।
लेकिन यदि केवल चन्द्र+राहु/केतु हो इसे सपात_चन्द्र_दोष कहा जाता है। केवल सूर्य+राहु/केतु हो तो इसे सपात_सूर्य_दोष कहा जाता है।
ग्रहण दोष ज्यादा खतरनाक दुष्प्रभाव रखता है जबकि सपात दोष ग्रहण दोष की अपेक्षा कम हानिकर होता है।
शर सिद्धांत ज्योतिष् का तकनीकी शब्द है। कदम्बप्रोत वृत्त में ग्रहबिम्ब और ग्रहस्थान का अन्तर शर कहलाता है। शर के अभाव को शराभाव कहते हैं । हर बार चन्द्र+राहु/केतु रहने पर चन्द्रग्रहण और सूर्य+राहु/केतु रहने पर सूर्यग्रहण नहीं होता। जब इसके साथ साथ शराभाव भी हो तभी ग्रहण दिखाई देता है। अगर शराभाव की बात न रहे तो हर पूर्णिमा को चन्द्रग्रहण और हर अमावस्या को सूर्यग्रहण लगेगा।
सपात_सूर्य_चन्द्र_दोष_अथवा_ग्रहण_दोष_शान्ति
कुंडली में राहु/केतु + सूर्य/चन्द्र योग रहने पर अशुभ फलों की आशंका बढ़ जाती है। इसे सपात सूर्य या सपात चन्द्र दोष कहा जाता है। जातक में निर्णय क्षमता की कमी, मन दुविधाग्रस्त रहना जैसे अशुभ फल दिखाई देते हैं। यदि राहु/केतु तथा सूर्य/चन्द्र के राशि अंशों में सन्निकटता हो अथवा ग्रहण के दौरान जन्म हो तो यह अशुभ फल बहुत विकट रूप में उभर कर सामने आते हैं। ग्रहण योग में जन्म होने पर आकस्मिक दुर्घटना, नेत्र दोष, दुर्भाग्य, विस्मरणता आदि फल उत्कट रूप से मिलते हैं।
शान्ति_उपाय
* यदि ग्रहण के दौरान जन्म हो तो वृहत्पाराशर होराशास्त्रानुसार ग्रहण शान्ति अवश्य कराएँ। इसके अलावा अग्रीम उपाय नियमित करें।
* प्रतिदिन त्र्यम्बक मन्त्र का सम्पुट लगाकर रुद्रसूक्त का पाठ करें।
* जो वेदमन्त्र पढ़ने के अधिकारी न हों वे मत्स्यपुराणोक्त *ग्रहणदोषोपशमन* स्तोत्र का पाठ करें।
* सपात सूर्य या सूर्य ग्रहण योग रहने पर अपने सौर जन्मदिवस पर उपवास रखें, फलाहार करें और दोपहर से पूर्व गणेश-कलश-नवग्रह-विष्णुपूजनादि करके दूब घास को घी में ड़ुबोकर *त्र्यम्बक मन्त्र* से 108, *सविता पश्चात्तात सविता पुरस्तात् सवितोत्तरात्। सवितोत्तरात् सविता नः सुवतु सर्वतातिं। सविता नो रासतां दीर्घमायु:।* मन्त्र से 108 घी आहुति, *ॐ भूर्भूवः स्वः* से घी की 108 आहुति, तथा जिस नक्षत्र में सूर्य हो उस नक्षत्र देवता के मन्त्र से खीर की 108 आहुतियाँ दें इसके पश्चात् सूर्य और राहु/केतु के वैदिक मन्त्र से साकल्य की 108 आहुतियाँ प्रदान करें। पूर्णाहुति करें। आरती पुष्पाञ्जली, प्रदक्षिणा, विसर्जन और प्रसाद वितरण करें।
* सपात चन्द्र दोष या चन्द्र-ग्रहण दोष रहने पर अपने चान्द्र जन्मतिथि पर उपवास रखें, फलाहार करें और दोपहर से पूर्व गणेश-कलश-नवग्रह-विष्णुपूजनादि करके दूब घास को घी में ड़ुबोकर त्र्यम्बक मन्त्र से 108, *आप्यस्व मदिन्तम सोम विश्वेभिरंशुभि: । भवा नः सम्प्रथस्तमः सखाष्वृधे ।* मन्त्र से घी की 108 आहुति, *ॐ भूर्भूवः स्वः* से घी की 108 आहुति, तथा जिस नक्षत्र में चन्द्र हो उस नक्षत्र देवता के मन्त्र से खीर की 108 आहुतियाँ दें इसके पश्चात् चन्द्र और राहु/केतु के वैदिक मन्त्र से साकल्य की 108 आहुतियाँ प्रदान करें। पूर्णाहुति करें। आरती पुष्पाञ्जली, प्रदक्षिणा, विसर्जन और प्रसाद वितरण करें।
यदि सपात चन्द्र/सूर्य दोष में जन्म हो तो दोष कम होता है इसलिए ग्रहण शान्ति की अनिवार्यता नहीं रहती। लेकिन उसके अलावा दो दैनिक पाठ और सपातसूर्य रहने पर सौर जन्मदिवस और सपात चन्द्र दोष रहने पर चान्द्र जन्मतिथि पर करणीय पूजा विधान जो बताया गया है उसे अवश्य करना चाहिए। इससे ग्रहण दोषजनक अशुभ फलों में कमी होकर सौभाग्य की वृद्धि होती है।

- पं. ब्रजेश पाठक "ज्यौतिषाचार्य"

Monday 4 March 2019

13 मार्च से होलाष्टक आरम्भ

13 मार्च 2019 से होलाष्टक का आरम्भ हो रहा है | यह होली के आठ दिन पहले से शुरू हो कर होली तक रहने वाला एक अशुभ मुहूर्त है | इसके सन्दर्भ में मुहुर्त चिन्तामणि नामक स्वकृत ग्रन्थ में श्रीराम दैवज्ञ लिखते हैं-

विपाशेरावतीतीरे शुतुद्रूश्च त्रिपुष्करे | विवाहादिशुभे नेष्टं होलिकाप्राग्दिनाष्टकम् ||
                                                                                             मु.चि., प्र.१ श्लो.४०
अर्थात- विपाशा (व्यास), इरावती(रावी), शुतुद्रू(सतलुज), नदियों के तीरप्रदेशों में तथा त्रिपुष्कर (अजमेर राजस्थान) क्षेत्रों में होलिका से आठ दिन पहले(अर्थात् फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से पूर्णिमा पर्यन्त) विवाह आदि शुभ कार्य निन्दित हैं | इसे "होलाष्टक" के नाम से जाना जाता है |

ये नदियाँ पंजाब प्रान्त और हिमाचल की हैं | अतः पंजाब, हिमाचल और राजस्थान आदि में होलाष्टक के दौरान शुभकार्य वर्जित है | बड़ी नदियों के दोनों ओर योजन पर्यन्त तट कहा गया है,अतः विशेष सावधानी के लिए श्लोकोक्त स्थानों के सीमावर्ती स्थानों में भी होलाष्टक के दौरान शुभ कर्म वर्जित कर सकते हैं | होलाष्टक के दौरान शुभ कार्यों की वर्जनियता सार्वदेशिक नहीं है, फिर भी आजकल समूचे उत्तर भारतीय क्षेत्र में होलाष्टक माना जाता है |
होली के बाद भी 15 दिन संवत्सर काअंतिम पक्ष होने से शुभ कर्मों के लिए वर्जित हैं |
इस दौरान मुख्यरूप से विवाह, उपनयन, मुंडन, अन्नप्राशन, गृहनिर्माण, गृहप्रवेश और किसी बड़े कार्य का शुभारम्भ नहीं करना चाहिये |

- पं. ब्रजेश पाठक "ज्यौतिषाचार्य"
   B.H.U., वाराणसी |


Sunday 3 March 2019

जिज्ञासु के प्रश्न और मेरा उत्तर


One more query- Is exalted Jupiter in seventh house bad for marriage being a functional malefic for a Capricorn lagna native ?

उत्तर- देखिए, आपके प्रश्न के अनुसार मकर लग्न के सन्दर्भ में यहाँ पर फलित ज्योतिष् के मुख्यतः पाँच प्रधान निर्णायक नियम उपस्थित हो रहे हैं।
1. द्वादशेश का सप्तम भाव में होना- ज्योतिष् का सामान्य सिद्धांत है कि बारहवें भाव का स्वामी जहाँ उपस्थित होता है, उस भाव का व्यय करता है। इस तरह द्वादशेश होकर वृहस्पति का सप्तम में होना शुभ फलद नहीं है। क्योंकि बारहवाँ भाव सप्तम भाव से छठा है इसलिए भी बारहवें भाव के स्वामी का सप्तम में बैठना अन्य भावों में बैठने की अपेक्षा कुछ ज्यादा ही बुरा है ।
वृहत्पाराशर होराशास्त्र के योगकारकाध्याय में मकर लग्न वालों के लिए वृहस्पति को महर्षि पाराशर ने कुजजीवेन्दवः पापाः कहकर पापी बताया है ।
ज्योतिष् के मूर्धन्य विद्वान पण्डित मुकुन्द दैवज्ञ पर्वतीय ने अपने ग्रन्थ ज्योतिस्तत्त्वम् में व्येयेश के सप्तमस्थ होने का फल लिखते हैं-
द्यूनेऽन्त्यपे भोगयुतः प्रतिष्ठितो,
नतीकृतारिश्च विशाल लोचनः।
मदालसो लोकविलोकनोचितो,
भीतारिको दुश्चरितो विशारदः।।

गृहाग्रणीर्दम्भयुतश्च दुष्टधीः,
सौम्ये क्षयं वारवधूजनाद् व्रजेत् ।
एनो ग्रहे दारविवर्जितोऽथवा,
निजाङ्गनातो निधनं समेति सः।।

अ.-34 श्लो.- 120-21
अर्थात्- सप्तम में व्ययेश हो तो भोगी, प्रतिष्ठित, शत्रुञ्जय, बड़े नेत्रों वाला, मद से आलसी, सुदृष्ट, शत्रुभयोत्पादक, निन्दित चरित्र वाला, चतुर, घर का मुखिया तथा दुष्ट बुद्धिवाला होता है। शुभग्रह व्ययेश हो तो परस्त्री मृत्यु का कारण बनती है, यदि पापग्रह व्ययेश हो तो विवाह ही न हो अथवा पत्नी मृत्यु का कारण बने।

2. तृतीयेश का सप्तम भाव में होना- वृहत्पाराशर होराशास्त्रम् में तृतीयेश के सप्तमस्थ होने का फल महर्षि बतलाते हैं-
तृतीयेशेऽष्टमे द्यूने राजसेवारतो मृतः।
दासो वा शैशवे दुःखी चौरो वा जायते नरः।।

अर्थात्- तृतीयेश यदि सप्तम या अष्टम भाव में हो तो जातक कोई राजकर्मचारी होता है और मृत्युपर्यन्त राज्य/राजा की सेवा करता रहता है। अथवा वह दासवृत्ति या चौरवृत्ति अपनाता है। वह बाल्यकाल में दुःखी रहता है।
लोमश संहिता में भी अल्पभेद से यही फल उक्त है। यथा-
तृतीयेशेऽष्टमे द्यूने राजद्वारे मृतिर्भवेत्।
चौरो वा परगामी वा बाल्ये कष्टं दिने दिने।।

यहाँ दासवृत्ति के स्थान पर व्यभिचारी दोष इंगित है।

3. वृहस्पति का सप्तम भाव में होना- वृहस्पति का सप्तम भाव में बैठना ज्यादातर शुभ परिणाम प्रदान करता है। चमत्कार चिन्तामणि नामक ग्रन्थ में भट्ट नारायण लिखते हैं-
मतिः तस्य बह्वी विभूतिश्च बह्वी,
रतिर्वैभवेद्भामिनीनामबह्वी ।
गुरुर्वर्गकृद यस्य जामित्रभावे,
सपिण्ड़ाधिकोऽखण्ड़ कन्दर्प एव।

गुरु भावफल श्लो. 7
अर्थात्- जिस मनुष्य के जन्मपत्र में सप्तमस्थ गुरु हो उसकी बुद्धि विलक्षण होगी। उसका वैभव दूसरों की तुलना में अधिक होगा। उसकी स्त्रियों के विषय में आसक्ति कुछ कम ही होगी। वह अपने कुल में श्रेष्ठता स्थापित करता है, अभिमानी होता है और कादेव के समान सुन्दर दिखाई देता है।

4. वृहस्पति का कर्क राशि में होना- वृहस्पति का कर्क राशि में होना भी ज्यादातर शुभ परिणाम देता है। देखें सारावली-
विद्वान् सुरुपदेहः प्राज्ञः प्रियधर्मसत्स्वभावश्च ।
सुमहद्बलो यशस्वी प्रभूतधान्याकरधनेशः ।।
सत्यसमाधिसुयुक्तः स्थिरात्मजो लोकसत्कृतः ख्यातः ।
नृपतिर्जीवे शशिभे विशिष्टकर्मा सुहृज्जनानुरतः ।।

अ. २७ श्लो ७-८
अगर इस जातक का चन्द्रमा मजबूत है तो निश्चित ही बृहस्पति वैवाहिक जीवन में बहुत बाधक नहीं बन पाएगा। थोड़ी बहुत बाधा द्वादशेश होने के कारण करेगा।
लेकिन यहाँ पर लघुपाराशरी के नियमों को नहीं भूलना चाहिए । ये वृहस्पति वैवाहिक जीवन में तो बाधक नहीं बनेगा लेकिन इसकी दशा प्रबल मारकत्व का गुण धारण कर सकती हैं।
इसकी ठीक प्रकार से समीक्षा कर लेनी चाहिए।


- पं. ब्रजेश पाठक "ज्यौतिषाचार्य"

Saturday 2 March 2019

जिज्ञासु के प्रश्न और मेरा उत्तर




आज एक जिज्ञासु ने ये प्रश्न भेजा है आइए इसका उत्तर देख लेते हैं। हाँलाकि इस तरह के और प्रश्न पहले भी आ चुके हैं और मैंने उनका उत्तर अपने पेज पर प्रकाशित किया है। फिर सवाल जब-जब जवाब तब-तब की तर्ज पर इसका उत्तर दे रहा हूँ।
इस तरह की समस्या ज्योतिष में तब आती है जब हमलोग ज्यौतिष के किसी एक नियम को तो बहुत ज्यादा महत्व देने लगते हैं पर शास्त्र सागर में गोता नहीं लगाते । Classics में आपको इस तरह के तमाम प्रश्नों का उत्तर बड़ी आसानी से मिल जाएगा, आप एक बार राउंड तो लगाएँ।

आइए कुंडली विचार करते हैं, आपका प्रश्न है कि जातक का पंचमेश नीच होने के बावजूद जातक बुद्धिमान कैसे हो गया?
सारावली में नीच शुक्र का फल देखते हैं-
असुरदयितोऽस्वतन्त्रं_प्रणष्टदारं विषमशीलम्
अ. ४४ श्लो. १८
इसमें कहीं नहीं लिखा है कि जातक अज्ञानी या मूर्ख या मन्दबुद्धि होगा।

पुनश्च आइए सारावली में ही शुक्र के कन्या राशि में होने का फल देखिए-
लघुचिन्तो_मृदुनिपुणः_परोपसेवी_कलाविधिज्ञश्च
स्त्रीसम्भाषणमधुरः_प्रणयनगणनार्थकृतयत्नः
नारीषु_दुष्टरतिषु_प्रणयी_दीनो_न_सौख्यभोगयुतः
कन्यायां_भृगुतनये_तीर्थसभापण्डितो_जातः

अ.२८ श्लो. ११-१२
पहले श्लोक के पहले पंक्ति के द्वितीय चरण में देखिए, लिखा है- कलाविधिज्ञश्च व्यक्ति कला और कानून का जानकार होगा। फिर से पहले श्लोक के चौथे पद को देखिए लिखा है- गणनार्थकृतयत्नः तो निश्चित है ऐसा व्यक्ति गणित, डाटा एनालिसिस, डाटा मैनेजमेंट संबंधी अध्ययन करेगा इसमें दिक्कत क्या है?
फिर आइए दूसरे श्लोक का चौथा पद देखिए, लिखा है- सभापण्डितो_जातः ऐसा व्यक्ति तो विद्वान होगा ही और जनता के बीच उसके विद्वत्ता की प्रसिद्धि भी होगी ।

शुक्र पञ्चमेश होकर नवम में है आइए पञ्चमेश के नवम भाव में होने का फल देखते हैं, पाराशर में-
सुतेशे_नवमे_पुत्रो_भूपो_वा_भूपसन्निभः
स्वयं_वा_ग्रन्थकर्ता_च_पुत्रः_स्यात्कुलदीपकः।।
अ.२५ श्लो-५२
पाराशर तो इस जातक को Book Writer बना रहे हैं। मन्दबुद्धि किताब तो लिखेगा नहीं, कम से कम किताब लिखने भर की योग्यता तो उसमें जरूर होगी।

थोड़ा और गोता लगाएँ, देखिए वह शुक्र नवमांश में स्वगृही है।
सारावली में कल्याणवर्मा कहते हैं-
स्वेषूच्चभागेषु_फलं_समग्रं_स्वक्षेत्रतुल्यं_भवनांशकेषु
नीचारिभागेषु_जघन्यमेव_मध्यं_फलं_मित्रगृहांशकेषु।। ४५.२२
इससे स्पष्ट होता है कि यदि ग्रह लग्न में नीच और नवांश में उच्च/स्वगृही हो तो मध्यम फल प्रदान करेगा। शुक्र का नीचत्व तो वैसे ही कमतर हो गया है।

आपने स्वयं निर्णय कर लिया कि शुक्र का नीचभंग नहीं हो रहा है, मित्र यह भी ध्यान रखिए ग्रह यदि नीच का है और नीचराशीश तथा उस ग्रह के उच्च राशीश संबंध करें तो नीचभंग हो जाता है। कुंड़ली में शुक्र का नीचराशीश बुध और शुक्र का उच्च राशीश गुरु संबंध कर रहे हैं।
और भी अनेक बातें हैं जिनकी व्याख्या हो सकती है। लेकिन प्रयोजन पूर्ण होने से कलम को विराम देता हूँ, लेख बढ़ता जाएगा।
समय की पाबन्दी आप सब जानते ही हैं।

- पं. ब्रजेश पाठक "ज्यौतिषाचार्य"
B.H.U., वाराणसी।

Friday 1 March 2019

महाशिवरात्रि में बन रहा है अद्भुत संयोग




इस वर्ष महाशिवरात्रि में बहुत ही अद्भुद संयोग बन रहे हैं | किसी भी पर्व को विशेष बनाती है उसकी दो योग्यताएं-
1) धर्मशास्त्रीय नियमानुसार पर्व की उपस्थिति
2)और पंचांग शुद्धि |
           धर्मशास्त्र के अनुसार फाल्गुन मास के कृष्णपक्ष के चतुर्दशी तिथि को महाशिवरात्रि पर्व मनाया जाता है, निशीथ व्यापिनी चतुर्दशी शिवरात्रि पूजन के लिए विशेष रूप से प्रशस्त है | इस सन्दर्भ में मैंने अपने पिछले लेख "महाशिवरात्रि व्रत निर्णय" में विस्तार से चर्चा की है |
इस वर्ष निशीथ व्यापिनी चतुर्दशी होने और एक ही दिन निशीथ व्याप्ति होने से निर्विवाद रूप से 4 मार्च को शिवरात्रि मनाई जाएगी|  इस प्रकार इस वर्ष की शिवरात्रि विशिष्ट होने की पहली योग्यता को पूरी तरह से प्राप्त कर रही है |
अब आइये दूसरी योग्यता पर विचार करते हैं, दूसरी  योग्यता है पंचांग शुद्धि | तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण को संयुक्त रूप से पंचांग कहा जाता है |

तिथि शुद्धि- सूर्योदय के समय चतुर्दशी के प्राप्त न होने से तिथि शुद्धि नहीं हो पा रही है | लेकिन निशीथ व्यापिनी की योग्यता को पूर्ण करने के कारण यह दोष गौण हो रहा है |

वार शुद्धि- चतुर्दशी तिथि के स्वामी शिव हैं इसलिए चतुर्दशी तिथि को शिवरात्रि मनाई जाती है | शिवरात्रि के दिन शिव जी का वार सोमवार होने से यह अद्भुद संयोग वाली शिवरात्रि शिवभक्तों को विशेष फल प्रदान करने वाली होगी | 

 नक्षत्र शुद्धि-   महाशिवरात्रि के दिन धनिष्ठा नक्षत्र का होना विशिष्ट संयोग बना रहा है | क्योंकि धनिष्ठा धनदायक नक्षत्र है, और इस नक्षत्र को मुहूर्त ग्रंथो में मंत्रसिद्धि और शांतिकर्म के लिए प्रशस्त बताया गया है | इस शिवरात्रि में की गई साधना पूजा भक्तों को सद्य सिद्धि प्रदान करने वाली होगी | धनिष्ठा नक्षत्र का शिवजी के विशेष सम्बन्ध है | आकाश में धनिष्ठा नक्षत्र की आकृति मृदंग की तरह बनती है, बहुत से ज्योतिषी इसे शिव जी का डमरू मानते हैं | धनिष्ठा नक्षत्र के देवता वसु माने गए हैं, भगवान् शिवजी रिश्ते में इन अष्टवसुओं के मौसा लगते हैं | धनिष्ठा नक्षत्र का स्वामी मंगल है जिसके पिता भगवान् शिवजी हैं | अंधकासुर से युद्ध करते समय शिवजी के गिरे हुवे  पसीने से मंगल की उत्पत्ति हुई थी |

योग शुद्धि- इस वर्ष 4 मार्च को महाशिवरात्रि के दिन शिव योग है | इस महाशिवरात्रि के दिन शिव योग उपस्थित होना बहुत ही श्रेष्ठ संयोग है | 

करण शुद्धि - महाशिवरात्रि के दिन भद्रा करण है | वैसे से भद्रा की कुछ स्थितियों को अशुभ बताया गया है | लेकिन भद्र शब्द का अर्थ होता है कल्याण और इसी भद्र शब्द से भद्रा शब्द बना है | भद्र की कुछ स्थितियां कल्याणकारक भी होती हैं | महाशिवरात्रि के दिन चंद्रमा के मकर राशी में होने से भद्रा का निवास पाताल लोक में हो रहा है और यह भद्रा उस दिन हमसब के लिए शुभ है | सोमवार व शुक्रवार की भद्रा कल्याणी कही जाती है इस प्रकार से भी यह भद्रा कल्याणप्रद है |

इस प्रकार शिवरात्रि के दिन निशीथव्यापिनीचतुर्दशी-सोमवार-धनिष्ठानक्षत्र-शिवयोग-भद्रा करण मिलकर अद्भुद संयोग बना रहे हैं, जो शिवभक्तो को अमोघ फल प्रदान करने में सक्षम होगी |
इस विशेष संयोग का अवश्य आप सबलोग लाभ उठायें और साधना-पूजन-शिवभक्ति-शिवपार्वती श्रृंगार-रुद्राभिषेक रात्रिजागरण आदि आदि अपने अनुकूलता के अनुसार अवश्य करें |


- पं. ब्रजेश पाठक ज्यौतिषाचार्य