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Saturday 31 December 2022

बाधकग्रहों पर शोधकार्य के दौरान प्राप्त अनुभव

मन की बात



बाधक ग्रह पर तथ्यों के अन्वेषण के दौरान मुझे सर्वार्थचिन्तामणि ग्रंथ अध्याय 18 श्लोक 2 मिला। इसके प्रथम पद 'क्रमाच्च रागद्विशरीरभाजाम्' का अर्थ लगाने के लिए मैं दो दिनों तक बहुत परेशान रहा, अनेक प्रयास किए। लेकिन बहुत प्रयास करने के बाद भी ये समझ नहीं आ रहा था कि 'रागद्विशरीरभाजाम्' का क्या अर्थ किया जाए? टीकाकारों ने इसका अर्थ चर, स्थिर, द्विस्वभाव किया था। लेकिन यह कैसे संभव होगा, इस बात को लेकर मेरा मन लगातार चिन्तन कर रहा था, क्योंकि प्रकरण के अनुसार तो यही अर्थ अपेक्षित था पर यह अर्थ 'रागद्विशरीरभाजाम्' से स्पष्ट नहीं हो रहा था। खेमराज से प्रकाशित हिन्दी टीका के महान टीकाकार ने तो न जाने क्या देखकर चर, स्थिर द्विस्वभाव भी लिखा और द्विशरीरभाजाम् को  देखकर राहु-केतु भी लिखा। मतलब देखकर मन ने उनके लिए कहा- हैं तो महानै वाले। यहाँ कहीं से भी राहु-केतु न तो वर्णित है न वांछित है। पर कापी पेस्ट भी करना है और अपनी अकल भी लगानी है (जो कि है ही नहीं उनके पास) तो ऐसा ही अनर्थ होगा। इसके अलावा भी मैंने सर्वार्थचिन्तामणि की कई टीकाएँ देखीं, लेकिन संतुष्ट नहीं हुआ। फिर थक हार कर दूसरे दिन मैंने अपने परिचित् ज्योतिर्विद् मित्रों को यह श्लोक भेजा और निवेदन किया कि 'रागद्विशरीरभाजाम्' को स्पष्ट करें। कई लोगों ने तो प्रयास ही नहीं किया, कई लोगों ने कुछ बहाने बता कर मना कर दिया। एक प्रिय मित्रमणि ने कुछ प्रयास किया अर्थ लगाने का पर मैं संतुष्ट नहीं हुआ, फिर एक घंटे बाद उन्होंने ही अन्वेषण करके मुझे फोन किया और कहा यदि क्रमाच्च और रागद्विशरीरभाजाम् के बीच का स्पेस मिटा दिया जाए तो अर्थ लग जाएगा क्या??? मैंने तुरंत उनका स्पेस हटाया उनको मिलाया- 'क्रमाच्चरागद्विशरीरभाजाम्' और....... अरे... अर्थ लग गया एकदम तुरंत और सुस्पष्ट क्रमात् + चर + अग(स्थिर) + द्विशरीर (द्विस्वभाव) + भाजाम् (संज्ञकेषु) = क्रमाच्चरागद्विशरीरभाजाम्। ये क्या जादु था भई। मतलब 'मौज कर दी तन्ने बेटे मौज कर दी' वाली फिलिंग आने लगी। फिर मैंने सभी टिकाएँ चेक की लेकिन सभी टीकाकारों ने 'क्रमाच्च रागद्विशरीरभाजाम्' स्पेस के साथ ही लिखा था। मतलब सब के सब बस यहाँ से उठा के वहाँ छापने में लगे हैं किसी एक ने गलती कर दी तो किसी ने उसको सुधारना जरूरी नहीं समझा पिष्टपेषण करते रहे और अपने अपने नाम से टीकाएँ छपवाते रहे। 


एक और अनुभव -

लगभग चार वर्ष पूर्व एक बार इस स्पेस ने मुझे और परेशान किया था। मुहूर्तचिन्तामणि की एक पंक्ति है कदास्त्रभे... मुझसे किसी ने पूछा इसका अर्थ बताइए। मैं लग गया अपने काम पर कदा + स्त्रभे लगाता रहा कोई अर्थ ही न लगे, परेशान हो गया क्या मामला है अर्थ क्यों नहीं लगता। संयोग से मैं वृंदावन में था गुरुजी के पास गया उनको दिखाया उन्होंने कुछ कहा नहीं 'गुरोस्तुमौनव्याख्यानम्'  छट से पेन उठाया और 'क-दास्त्रभे' कर दिया। अरे वाह ये क्या हो गया, अब इसका अर्थ कौन नहीं लगा पाएगा? क (ब्रह्मा) अर्थात् रोहिणी  दास्त्र (अश्विनी) भे (नक्षत्र में)। देखते देखते सेकेंडों में तुरंत समाधान हो गया,  जिसको लेकर मैं घंटों परेशान था।


बाधकग्रहों पर शोधकार्य के दौरान प्राप्त अनुभव


निष्कर्ष -

इन घटनाओं से एक महत्वपूर्ण शिक्षा मिली, हमें इन्हीं मामलों में तो गुरु की जरूरत होती है। वो अतिरिक्त स्पेस मिटा देते हैं या आवश्यक स्पेस लगा देते हैं और हम शिष्य छिन्नसंशयाः हो जाते हैं। ज्योतिष भी समाज की इसी प्रकार तो सेवा करता है, जो उनके भाग्य में तो है लेकिन अज्ञानतावश उनका दृष्टिकोण वहाँ पहुँच नहीं पा रहा है ज्योतिष अनावश्यक स्पेस को मिटा देता है या आवश्यक स्पेस (उपाय आदि) लगा देता है, नवीन दृष्टिकोण से जो आपको प्राप्त होने के बावजूद नहीं मिल पा रहा है उसे प्राप्त करा देता है। जो ज्योतिष शास्त्र स्वयं वेद का नेत्र है वो क्या आपके जीवन का पथप्रदर्शन नहीं करेगा? निश्चित रुप से करेगा और करोडों वर्षों से करता ही आ रहा है।  

देखिए कहने को तो उक्त गलती छोटी कही जा सकती है, लेकिन कैसे उसके कारण पूरा अर्थ ही विलुप्त हो रहा था। इसलिए भास्कराचार्य जी ने ज्योतिष पढ़ने के अधिकारी बनने के लिए अनिवार्य योग्यताओं में शब्दशास्त्र (व्याकरणशास्त्र) में अतिशयेन पटुः होना लिखा है। अगर अतिशयेन पटुः होंगे तो क्रमाच्च रागद्विशरीरभाजाम् नहीं लिखेंगे। लिखा भी हो तो समझ में आ जाएगा कि इनको मिलाकरके लिखना है। यदि अतिशयेन पटु होंगे तो जबरदस्ती द्विशरीरभाजाम् का अवांछित राहु-केतु अर्थ नहीं करेंगे। 


उपसंहार -

सुधि जनों ! ज्योतिष बहुत गहन शास्त्र है। यह एक ऐसा इकलौता शास्त्र है जो सभी शास्त्रों के रक्षण पोषण में सहायता प्रदान करता है। यह शास्त्र केवल ज्योतिष शास्त्रज्ञों का ही नहीं बल्कि अन्य भी सभी शास्त्रज्ञों के योगक्षेम का वहन करने में सहायक सिद्ध होता है। यह लोकोपकारी विद्या मातृवत् हमारा रक्षण, पोषण और पालन करती है। इसलिए मैं आप सभी लोगों से करबद्ध निवेदन करता हूँ, तन्मयता से इस शास्त्र का मनन चिन्तन करें, अध्ययन करें और बहुत सावधानी पूर्वक फलादेश में प्रवृत्त हों। कदाचित् आपकी किसी गलती के कारण इस महान् शास्त्र को उपाहास का पात्र कोई न बना ले।


© ज्यौतिषाचार्य पं. ब्रजेश पाठक - Gold Medalist











Wednesday 28 December 2022

क्या हैं राहु और केतु ?

  क्या हैं राहु और केतु ?


राहु-केतु का नाम सुनते ही कई लोगों के मन में भय उत्पन्न हो जाता है। तो कई लोगों के मन में जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि भला ये राहु केतु हैं क्या? विज्ञान के छात्र ये प्रश्न भी करते हैं कि यदि राहु केतु ग्रह हैं तो उनका कोई भौतिक पिण्ड क्यों दिखाई नहीं देता। इस तरह के कई सवाल लोगों के मन में अपने ग्रंथों के प्रति अनास्था का भाव उत्पन्न करते हैं । लोग अपने ऋषि मुनियों के ज्ञान को बेतुका और तुच्छ समझने लगते हैं। इन्ही कारणों से राहु-केतु संबंधी सभी प्रश्नों का जवाब आपके ज्ञानवृद्धि हेतु प्रस्तुत है।

राहु केतु की परिभाषा करते हुवे "गोल परिभाषा" नामक ग्रन्थ में कहा गया है-

विमण्डले भवृत्तस्य सम्पातः पात उच्यते।

एवं चन्द्रस्य यौ पातौ तत्राद्यौ राहुसंज्ञकः

द्वितीयः केतुसंज्ञस्तौ ग्राहकौ चन्द्रसूर्ययोः।।


ग्रहकक्षा को विमण्डल वृत्त कहा जाता है। सूर्य के विमण्डल वृत्त को क्रान्तिवृत्त या भवृत्त कहते हैं । जबकि बाकी ग्रहों के विमंडल वृत्त उनके नाम से ही पुकारे जाते हैं, यथा- चंद्र विमंडल वृत्त, भौम विमंडल वृत्त आदि। यह क्रान्तिवृत्त विमण्डल वृत्त से होकर गुजरने के कारण  विमण्डल वृत्तों को दो जगहों पर काटता है। इन्ही कटान बिंदुओं या सम्पात (पात) स्थानों में से उत्तरी कटान बिन्दु  को राहु तथा दक्षिणी सम्पात बिन्दु को केतु कहा जाता है। परंतु ज्यौतिष में जहाँ कहीं भी केवल राहु या केवल केतु शब्द का प्रयोग होता है वहाँ उनका अर्थ चंद्रमा के राहु-केतु से ही लिया जाता है। बाकि ग्रहों के पातों को उन ग्रहों के नाम से ही बुलाया जाता है, यथा- गुरु के राहु-केतु/पात, शनि के राहु-केतु/पात आदि।  चंद्रमा पृथ्वी से नजदीक है और इसके दोनों पात पृथ्वी में रह रहे जीवों को ज्यादा प्रभावित करते हुवे हमारे ऋषियों को अनुभूत हुवे हैं इसलिए ज्योतिषीय गणनाओं में चंद्रमा के पातों को विशेष महत्व दिया गया है। चंद्रमा के पातों को भी ग्रह माना गया है, जबकि इनका कोई भौतिक पिंड नहीं है।





आइये इन पातों के सम्बन्ध में कुछ विशेष तथ्य जानें- 

१. दो वृत्तों के कटान बिन्दु हमेशा आमने सामने अर्थात           180°· के अन्तर पर होते हैं।

२. राहु-केतु भी हमेशा एक दुसरे से 180° के अन्तर पर अर्थात एक दूसरे सेे छः राशियों (३०×६=१८०·) के अन्तर पर रहते हैं। 

3. इसलिए राहुस्पष्ट करने के बाद उसमे 6 राशी जोड़ने से केतुस्पष्ट हो जाता है । 

4. केतु को अलग से स्पष्ट करने की जरुरत नहीं पड़ती।

5. ये ग्रह के विपरीत दिशा में चलते हैं अर्थात वक्री रहते हैं। इनकी चाल ग्रह की तरह पूर्व से पश्चिम न होकर पश्चिम से पूर्व दिशा की ओर रहती है।


आप परीक्षण के लिए किसी की भी लग्न कुण्डली को उठा कर देख सकते हैं या पञ्चांग उठा कर देख सकते हैं। यही राहु केतु सूर्य व चंद्र ग्रहण के लिए उत्तरदायी हैं। ज्यौतिष में "ग्रहणं करोतीति ग्रहः" से ग्रह की परिभाषा कही गई है अर्थात जो फलों का ग्रहण करे वो ग्रह है। उद्देश्य भिन्न-भिन्न होने से हमारे ज्यौतिष मनीषियों और आधुनिक वैज्ञानिकों की ग्रह संबंधी परिभाषा अलग-अलग है । हमारी परिभाषा में चन्द्रमा ग्रह है जबकि उनकी परिभाषा में उपग्रह । ज्यौतिष में प्रधान रूप से 7 ग्रह ही माने गए हैं । राहु केतु को ज्योतिष में  केवल ग्रह नहीं बल्कि तमोग्रह/छायाग्रह कहा गया है। केवल राहु केतु ही ऐसे नहीं हैं जिन्हे ग्रह कहा गया है बल्कि गुलिक, धूम, व्यतिपात, परिवेश इन्द्रचाप, उपकेतु आदि को भी ग्रह कहा गया है परन्तु इन्हें अप्रकाश ग्रह कहते हैं। कृष्ण विवर(Black hole) भी राहु है पर ये वो राहु नहीं जो  ज्योतिष में ग्रहण किए गए हैं तथा जो सूर्य व चंद्र ग्रहण के उत्तरदायी हैं जिनकी ऊपर चर्चा की गई हैं बल्कि ये वो राहु है जिनकी संहिता ग्रन्थों में चर्चा की गई हैं। ज्यौतिष अनंत ब्रह्माण्ड के अनंत ज्ञान से परिपूर्ण है जो की हमें प्रकृति के कार्यप्रणाली को समझाता भी है और ब्रह्म तक पहुँचने का मार्ग भी सुगम करता है। ज्यौतिषवेत्ता ब्रह्माण्ड का ज्ञान रखने के कारण ईश्वर के ज्यादा करीब होता है और संसार का कल्याण करने में भी सक्षम होता है।


-पं. ब्रजेश पाठक "ज्यौतिषाचार्य"

हरिहर ज्योतिर्विज्ञान संस्थान, लोहरदगा।